Thursday, April 26, 2018

बैंको की दोहरी नीति ---26-4-18

बैंको की दोहरी नीति ---

किसानो को आत्महत्या करने पर मजबूर करती है |


कारपोरेटो को दामाद की तरह रखवाली करता है बैंक



किसानो को दिए जाते रहे कृषि ऋण और धनाढ्य कारोबारियों को दिए जाने वाले ''कारपोरेट ऋण '' के सन्दर्भ में कृषि मामलो के ज्ञाता लेखक देविंदर शर्मा के दो लेख 23 जनवरी और 1 मार्च के हिंदी दैनिक 'अमर उजाला ' में प्रकाशित हुए है | 23 जनवरी के लेख में ''किसानो की दयनीयता का उत्सव '' शीर्षक के साथ लिखे लेख में उन्होंने यह रोचक तथ्य उजागर किया है कि ''-- जब भी सरकारे किसानो का ऋण माफ़ करती है या उन्हें कोई सब्सिडी देती है तो उसका जोर - शोर से प्रचार और दिखावा किया जाता है | लाभार्थी किसानो को चेको को बड़े - बड़े कटआउट दिए जाते है | मंत्री , सांसद , विधायक ऋण माफ़ी के आयोजित समारोहों में यह संदेश देने के लिए शिरकत करते है कि उनकी सरकार किसानो की बड़ी हितैषी है |
लेकिन जब जब बड़े उद्योगों की बात आती है , तब भारी कर रियायत देने , बैंको द्वारा उनके बड़े कर्जो -- को बट्टेखाते में डालने और खैरात देने के काम को चुपचाप किया जाता है | विकास को प्रोत्साहन देने के नाम पर उन्हें भारी सब्सिडी गुपचुप तरीके से दे दी जाती है | इसके लिए किसी समारोह का आयोजन नही होता | इन बड़े कारोबारियों को वित्तमंत्री या वाणिज्यमंत्री से बट्टेखाते का प्रमाणपत्र पाने की लाइन नही लगानी पड़ती | इसके साथ यह धारणा भी पनपाई जाती है कि कारपोरेट जगत के बट्टे खाते के कर्ज से भी आर्थिक विकास होता है | जबकि किसानो की ऋण माफ़ी से वित्तीय अनुशासनहीनता बढती है और राष्ट्रीय धन का लेखा - जोखा गडबडाता है |

पंजाब , उत्तर प्रदेश कर्नाटक सरकार द्वारा घोषित ऋण माफ़ी के आयोजित समारोहों की चर्चा करते हुए उन्होंने यह सूचना भी दिया है कि 'विभिन्न राज्यों द्वारा कई वर्षो बाद घोषित फसल ऋण माफ़ी की कुल राशि 75.000 करोड़ रूपये की है | --- जबकि राष्ट्रीयकृत बैंको ने वर्ष 2017 - 18 की पहली तिमाही में ही 55 हजार करोड़ से अधिक राशि के कारपोरेट कर्ज को चुपचाप बट्टेखाते में अर्थात वापस न मिल सकने वाले खाते में डाल दिया --- एक साल पहले 2016 - 17 में बैंको ने 77 हजार करोड़ रूपये के कारपोरेट कर्ज को बट्टे खाते में डाल दिया था - पिछले 10 सालो में कुल 3 लाख 60 हजार के कारपोरेट कर्ज को बट्टेखाते में डाला गया है - लेकिन इसका लाभ उठाने वाली डिफाल्टर कम्पनियों का नाम तक उजागर नही किया गया | वित्त मंत्रालय के साथ - साथ रिजर्व बैंक ने बार - बार सुप्रीमकोर्ट से अपील किया कि इन कम्पनियों के नामो का खुलासा न किया जाए | क्योकी यह पूंजीनिवेश एवं आर्थिक विकास के लिए वांछनीय नही है |
इसी तरह से 1 मार्च के समाचार पत्र में ''कारपोरेट और किसान में फर्क क्यो '' शीर्षक के साथ लिखे लेख में उन्होंने किसानो को न्यायालय द्वारा दण्डित किये जाने और धनाढ्य कारोबारियों को चुपचाप छोड़े रखने पर चर्चा किया है | उन्होंने पंजाब हरियाणा के किसानो को 50 हजार से लेकर 2 लाख तक के कर्ज न चुका पाने के फलस्वरूप जिला न्यायालय द्वारा उनको दण्डित करने तथा बैंको द्वारा अपना कर्ज निर्ममता पूर्वक वसूले जाने का उदाहरण दिया है | बैंकिंग व्यवस्था के दोहरेपन को उजागर करते हुए उन्होंने लिखा है कि 'गरीब व वंचित तबके के लोगो के साथ बैंकिंग व्यवस्था बड़ी बेहरमी से पेश आती है जबकि धनी , दिवालिया लोगो के लिए उसने अलग नियम बना रखे है | - खबरों के मुताबिक़ 30 सितम्बर 2017 तक अपनी मर्जी से दिवालिया होने वालो की कुल संख्या 9 हजार से अधिक थी | उन्होंने बैंको के कुल 1.1 लाख करोड़ का कर्ज लौटाने से इंकार कर दिया |' उन्हें दण्डित किये जाने की कौन कहे उनका नाम तक उजागर नही किया गया | लेखक ने इस लेख में भी इस बात को पुन दोहराया है कि वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक सर्वोच्च न्यायलय से जान बुझकर दिवालिया होने वाले बड़े कारोबारियों का नाम उजागर न करने का आग्रह कर चुके है | क्योकि उससे निवेशको में गलत संदेश जाएगा |
इसके फलस्वरूप भी धनाढ्य डिफाल्टरो को इसका फायदा बिना किसी विरोध के मिलता रहा है और बैंको का बट्टेखाते वाला कर्ज भी बढ़ता रहा है | उन्होंने आगे लिखा है कि बैंकिंग नियामक का भय सिर्फ आम आदमी के लिए हैं | किसानो के बकाये की वसूली के लिए हर तरह के अमानवीय हथकंडे अपनाये जाते है | लेकिन उन्ही बैंको के द्वारा कारपोरेट कर्जदार के प्रति बहुत उदार रवैया अपनाया जाता है | संसद की लेखा जोखा समिति ने अनुमान लगाया था कि मार्च 2017 तक बैंको का 6 लाख 80 हजार करोड़ का कर्ज बकाया है | इसमें 70% कर्ज कारपोरेट जगत का है और सिर्फ 1 % कर्ज किसानो से सम्बन्धित है | बैंको ने पिछले दस सालो के 3.6 लाख करोड़ की बट्टेखाते की रकम को माफ़ कर दिया है | इन तथ्यों को सुनाने के पश्चात लेखक ने अंत में एक अजीब सा बयाँन भी दिया है की मैं नही समझ पा रहा हूँ की बकाये कर्ज वसूली के लिए कारपोरेट प्रमुखों के साथ वैसा ही व्यवहार क्यो नही किया जाता जैसा की किसानो के साथ किया जाता है - लेखक का बयाँन इसलिए अजीब है कि वे इस बात से अनजान नही हो सकते की सरकारों को , उनके मंत्रियों को किसानो की कर्ज माफ़ी का ढिढोरा एवं समारोही प्रदर्शन करने की आवश्यकता इसलिए पडती है कि उन्हें सत्ता स्वार्थी राजनीति के लिए देश की सबसे बड़ी आबादी के रूप में मौजूद किसानो के चुनावी समर्थन व वोट की आवश्यकता है - जबकि अल्पसंख्या में मौजूद धनाढ्य कारोबारियों के लिए उन्हें ऐसा करने की कोई जरूरत नही है - इस राजनीतिक मजबूरी के अलावा लेखक इस बात से भी अनजान नही हो सकते की राष्ट्र के धन व पूंजी तथा उद्योग - व्यापार के धनाढ्य मालिको और बहुसंख्यक किसानो के हितो में हल न किया जा सकने वाला अंतर मौजूद है | किसानो को महँगे लागत में सामान बेचकर तथा कृषि उत्पादों को न्यूनतम मूल्य पर खरीदकर ही उद्योग व्यापार के मालिक अपने लाभों पूंजियो को बढ़ा सकते है | इसी तरह से सरकारी खजाने से कृषि क्षेत्र में किये जाते रहे निवेश को घटाकर ही धनाढ्य खजाने का अधिकाधिक हिस्सा पा सकती है ऐसा किये बगैर उन्हें सरकारी खजाने से अपने निजी लाभ बढाने के लिए हजारो करोड़ो की टैक्स माफ़ी , कर्ज माफ़ी तथा अन्य प्रोत्साहनो को पाने का अवसर नही मिल,सकता | इसलिए देश विदेश के धनाढ्य कारोबारियों के लिए उदारवादी एवं निजिवादी छुटो , अधिकारों को बढावा देने के साथ किसानो एवं जनसाधारण हिस्सों के छुटो अधिकारों को काटने उन्हें सरकारी एवं गैरसरकारी कर्ज के संकटो में धकेलने उन्हें उसकी अदायगी के लिए मजबूर करते रहने और कभी - कभार ऋण माफ़ी की घोषणा के साथ उनका चुनावी समर्थन लेने के सिवा और कोई दूसरा रास्ता नही है | इन परस्पर विरोधी आर्थिक सामाजिक स्थितियों में देश के विद्वान् बुद्धिजीवी के पास केवल तीन ही रास्ते बचे है | एक तो यह है कि वे खुलकर धनाढ्य कारोबारियों के पक्ष में खड़े हो जाए | उन्ही के विकास को देश का विकास बताये उनके लिए कर्ज माफ़ी और प्रोत्साहन पैकेजों को देश के विकास के लिए उचित बताये | उनके द्वारा किये बैंको की भारी रकम को न देने के वावजूद उनके नाम को उजागर करने को निवेश और विकास के लिए हानिकारक बताये | देश के उच्चस्तरीय अर्थशास्त्री प्रचार माधय्मी हिस्सा यही कह भी रहा है और उसी की आवाज प्रचार माध्यमो में सुनाई भी पड़ रही है | इसके अलावा दूसरी श्रेणी के विद्वान् बुद्धिजीवी में वे लोग शामिल है जो किसानो श्रमजीवियो जनसाधारण के व्यापक हितो के लिए धनाढ्य वर्गो कारोबारियों पर उनके लाभों छुटो एवं अधिकारों पर अधिकाधिक नियंत्रण एकं कटौती को आवश्यक मानते है | विडम्बना है कि इनकी संख्या बल और इनकी आवाज फिलहाल बहुत कमजोर है और वह सुनाई भी नही पड़ती है
तीसरी तरह के विद्वान् वे लोग है जो किसानो एवं जनसाधारण के हितो की कुछ सूचनाये तो प्रस्तुत करते है मगर वे किसानो के हितो के लिए धनाढ्य कारोबारियों के निजी स्वार्थो हितो पर अंकुश व नियंत्रण नही चाहते | वे उसे बरकरार रखते हुए और बढाते हुए किसानो के हितो की बात करते है | उनके साथ सरकारों तथा बैंको की नियामक संस्थाओं द्वारा की जाती रही ज्यादती या नाइंसाफी पर प्रचार माध्यमो में सवाल भी उठाते रहते है | किसानो एवं धंधी कारोबारियों के बीच अपनाए जा रहे भेदभाव पूर्ण व्यवहार पर आश्चर्य दुःख क्षोभ व्यक्त करते रहते है | बताने की जरूरत नही उनका वह दुःख निर्थक साबित होता है |


सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

5 comments:

  1. बैंकों की नीति तो कम बैकिंग सिस्टम में बैठे हुए भ्रष्ट उच्चाधिकारी हैं जिन्होंने फ्राड गारंटी पेपर मुहैया करा कर बैड लोन देने में मदद की।जहाँ तक लोन माफी का सवाल है तो मेरा मानना है कि हर तरह की लोन माफी सिस्टम को खोखला ही करती है तथा मेहनत से कमा कर अपनी इ एम आई और अन्य लोन भरने वालो को हतोत्साहित भी करती है।सरकारों ने पूर्व में ही सब्सिडाइज्ड लोन दे रखा है तो फिर उसे न जमा करने वालो को लोनमाफी देकर जमाकरने वालों का मनोबल क्यों तोडना।सुविधाएं मुहैया हो यह अलग इश्यू है।शायद मोदी सरकार न होती तो आज नीरव मोदी का केस दबा ही रहता ...

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    1. अमित जी आपकी बातो से मैं सहमत हूँ

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-04-2017) को "यह समुद्र नहीं, शारदा सागर है" (चर्चा अंक-2954) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. आदरणीय शास्त्री जी आपका आभार कि आपने मेरे लेख को चर्चा मंच पे स्थान दिया | सादर कबीर

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