Saturday, April 14, 2018

लामबंद होता किसान 14-4-18

लामबंद होता किसान

महाराष्ट्र में लगभग 40.000 किसानो ने नासिक से मुंबई तक की 200 किलोमीटर की पदयात्रा करके 11 मार्च को मुंबई की सडको पर मार्च किया | उन्होंने अपनी मांगो को लेकर महाराष्ट्र विधान सभा को घेरने का निश्चय किया था | लेकिन वैसी स्थिति आने से पहले ही महाराष्ट्र सरकार के मुख्यमंत्री ने उनकी कुछ मांगो को मानते हुए और कुछ पर सहानुभूति पूर्वक विचार करके उन्हें मनाने का आश्वाशन देकर वहाँ से विदा किया |
किसानो की इस पदयात्रा आन्दोलन को हिंदी व अंग्रेजी समाचार पत्रों ने कम जगह दी | ज्यादातर समाचार पत्रों ने 11 मार्च को मुंबई में किसानो के पहुचने के बाद ही उसे समाचार के रूप में प्रकाशित किया | यह बड़े प्रचार माध्यमो द्वारा किसानो और उनके आंदोलनों के प्रति उपेक्षा पूर्ण रवैये को ही प्रदर्शित करता है | उनका यह उपेक्षा पूर्ण रवैया इस रूप में भी प्रदर्शित हुआ है कि किसी भी समाचार पत्र ने उनकी सभी मांगो को प्रकाशित नही किया है | इसीलिए उनकी मांगो के बारे में भी पूरी जानकारी नही मिल पाई | मोटे तौर पर उनकी मांगो में हर तरह के कृषि ऋण की माफ़ी , वन अधिकार अधिनियम लागू किये जाने , कृषि उद्पादों के लिए लाभप्रद मूल्य तय किये जाने , स्वामीनाथन आयोग के सुझावों को लागू करने की , नदी जोड़ योजना के जरिये सार्वजनिक सिंचाई को बढावा देने की , विभिन्न परियोजनाओं के लिए कृषि का अधिग्रहण रोकने आदि की मांगे शामिल है | महाराष्ट्र सरकार ने इन मांगो पर विचार कर उसे पूरा करने के लिए छ: माह का समय लिया है | ध्यान देने वाली बात है कि महाराष्ट्र पिछले 7 - 8 सालो से किसानो की आत्महत्या का सबसे अग्रणी प्रान्त बना हुआ है | पर वहाँ की सरकारे इस बात की अनदेखी करती रही है | देश की केन्द्रीय व अन्य प्रांतीय सरकारे भी किसानो के बढ़ते संकटो , समस्याओं की तथा 1995 से उनमे बढ़ते रहे आत्महत्याओं की अनदेखी करती रही है | इन स्थितियों एवं उपेक्षाओ को देखते हुए अब विभिन्न पार्टियों एवं मोर्चो सरकारों द्वारा किसानो को दिए आश्वासन विश्वसनीय नही रह गये है | अभी पिछले साल महाराष्ट्र सरकार द्वारा कर्जमाफी योजना के तहत 340 अर्ब रूपये का पॅकेज घोषित किया गया था | लेकिन उसमे से अब तक केवल 138 करोड़ रूपये के ही कर्जो का माफ़ होना भी इसी का परीलक्षण है |

इसे देखते हुए इस बात की उम्मीद नही कि अगले छ: माह में महाराष्ट्र की सरकार या देश - प्रदेश की अन्य सरकारे किसानो की समस्याओं एवं उनकी मांगो का कोई भी संतोषप्रद समाधान प्रस्तुत करेगी | इसकी उम्मीद इसलिए भी नही है कि देश के तीव्र आर्थिक वृद्धि व विकास के नाम पर कृषि क्षेत्र के महत्व को लगातार घटाया जा रहा है | कृषि भूमि शहरीकरण करने तथा ढाँचागत परियोजनाओं एवं निजी औद्योगिक व्यापारिक क्षेत्र को विकसित करने के नाम पर उसको संकुचित किया जा रहा है | वनों की भूमि पर भी उद्योग व्यापार के धनाढ्य मालिको , माफियाओं द्वारा कानूनी व गैरकानूनी तरीको से कब्जा किया जाता रहा है | कृषि लागत मूल्य को अनियंत्रित रूप से बढने की छुट देते हुए तथा कृषि उद्पादों के मूल्यों पर अधिकाधिक नियन्त्रण करते हुए सरकारों द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य को भी मुख्यत: घोषणाओं तक ही सीमित किया जा चूका है | फलस्वरूप खेती - किसानी के लागत की और जीवन की अन्य आवश्यक आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए किसानो का सरकारी व् महाजनी कर्ज के संकटो में फसना इनकी नियति बन गयी है | इस कर्ज संकट से और कभी - कभार की कृषि ऋण माफ़ी से उन्हें कर्ज की निरंतर बढती आवश्यकता और फिर उसमे बढ़ते फसांन से मुक्ति नही मिल सकती है | कई प्रान्तों में कर्ज माफ़ी की घोषणाओं और उनके थोड़े या ज्यादा क्रियान्वयन के वावजूद किसानो की आत्महत्या जारी है | स्वामीनाथन आयोग भी किसानो के बढ़ते लागत खर्च को घटाने का कोई सुझाव नही प्रस्तुत करता | इसलिए आयोग के सुझावों को मान लेने के बाद भी किसानो का संकट कम होने वाला नही है | यह इसलिए भी कम होने वाला नही है कि कृषि विकास की योजनाओं की नीतियों को आगे बढाने और उसके लिए सरकारी धन के निवेश की प्रक्रिया को 1990 के दशक से ही घटाया जा रहा है | कृषि ऋण की मात्रा को बढाते और उसे लाखो करोड़ में पहुचाते हुए सरकारी निवेश को निरंतर घटा रही है सरकारे | इसलिए किसानो को अब अपने हितो के प्रति कहीं ज्यादा सजग और सगठित व आंदोलित होने की आवश्यकता है | महाराष्ट्र के किसानो ने अपनी पदयात्रा आन्दोलन में इसे प्रदर्शित कर दिया है | लेकिन अभी उसे वहाँ की अखिल भारतीय किसान सभा का एक तात्कालिक प्रयास ही माना जाएगा | हाँ ! यह प्रयास घनात्मक है | क्योकि इसने किसानो की पहचान को जाति - धर्म की पहचान के आगे खड़ा कर उन्हें अपनी मांगो के लिए लामबंद कर दिया है | इसके पीछे कोई राजनीतिक या गैर राजनीतिक सगठन हो या न हो लेकिन अगर यह प्रक्रिया चलती रही तो किसान स्वत: एक व्यापक एक प्रभावकारी आन्दोलन के रास्ते आगे बढ़ जाएगा | लेकिन यह काम निरंतर चलने वाले किसान आन्दोलन का रूप तब तक नही ले सकता , जब तक किसानो की स्थानीय स्तर पर स्थायी समितिया नही बनती | उनमे अपनी समस्याओं पर विचार - विमर्श के साथ उनके समाधान की मांगे नही खड़ी की जाती | अन्य क्षेत्रो की किसान समितियों के साथ उनके अधिकाधिक जुड़ाव व सहयोग को निरंतर बढाते हुए किसान आन्दोलन की रणनीतियो को निर्धारित नही किया जाता | उन रणनीतियो कार्यनीतियो को लेकर आगे बढने का प्रयास होना जरूरी है |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - आभार चर्चा आजकल की

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-04-2018) को ) "कर्म हुए बाधित्य" (चर्चा अंक-2942) पर होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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