Wednesday, February 28, 2018

भारत आजादी के लिए संघर्ष का शुरूआती बिगुल फूँकने वाले : -- 1757 - 1857 -- 28-2-18

भारत आजादी के लिए संघर्ष का शुरूआती बिगुल फूँकने वाले :

-- 1757 - 1857 --



सिराज - उद - दौला : उपनिवेशवाद को चुनौती देने वाला पहला शासक

1757 में अंग्रेजो को चुनौती देने वाला बंगाल का नवाब सिराज - उद - दौला देश का पहला शासक था जिसने अंग्रेजी शासन के विस्तार में निहित खतरे को महसूस किया और उसे शुरुआत से ही रोकने की कोशिश की | अंग्रेजो के द्वारा कलकत्ता की अतिरिक्त किलेबंदी ने ''नवाब के कोप को भड़काया ''|
उसने कलकत्ता की ओर कूच किया और 20 जून 1756 को फोर्ट विलियम पर कब्जा कर लिया | लेकिन अपने विश्वासघाती सेनापति मीर जाफर और बैंकर जगत सेठ के नेतृत्व में धनवान व्यापारियों के समूह द्वारा वह प्लासी के युद्ध में पराजित हुआ | फिर भी , सिराज - उद - दौला का नाम इतिहास के दस्तावेजो में ऐसे पहले शासक के रूप में दर्ज है , जिसने अंग्रेजो के विस्तारवादी मंसूबो को चुनौती दी | प्लासी के युद्ध के बाद नवाब मीर कासिम अंग्रेजो के खिलाफ वीरतापूर्ण लड़ा और बक्सर में 1764 में पराजित हुआ | इन लड़ाइयो में सफलता के चलते ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल , बिहार और उड़ीसा राज्यों को अपने कब्जे में ले लिया |

टीपू सुलतान : एक आदर्श उपनिवेशवाद विरोधी
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मैसूर के काफी बड़े भूभाग के मुस्लिम शासक हैदर अली और उसके बेटे टीपू सुल्तान के साथ 18 वी सदी की लड़ाई में अंग्रेजो को अपनी ढेर सारी ताकत झोंकनी पड़ी | टीपू सुल्तान नवम्बर 1750 - 4 मई 1799 ने प्रभावी तरीके से देशी शासको को अंग्रेजी के साम्राज्यवादी मंसूबो के बारे में आगाह किया | वह चाहता था कि देशी शासक अपनी विनाशकारी अंदरूनी लड़ाइयो को त्याग दें और इसके बजाए ब्रिटिश उपनिवेशवाद के हमले से अपने देश की रक्षा करने के लिए एक जुट हो जाए | उसने अपने पिता हैदर अली द्वारा विदेशी शासको के खिलाफ शुरू किये गये संघर्ष को जारी रखा | उसने उपनिवेशवादी शासको की असलियत और देश को हडप लेने की उनकी सुनियोजित योजनाओं को स्पष्ट करते हुए देशी शासको को पत्र लिखे | दो मोर्चो , एक देशी देशद्रोहियों और दूसरे उपनिवेशवादी सत्ता के खिलाफ संघर्ष करते हुए 4 मई 1799 को टीपू सुल्तान शहीद हो गया | वह इस देश से सच्चा प्यार करता था और उसने राष्ट्रीय आजादी के ध्येय को हासिल करने के लिए शहादत दी | यह आखरी घटना थी जिसमे भारतीय बादशाह ने समय की धार को शक्तिशाली अंग्रेजो के खिलाफ मोड़ दिया था | मैसूर की चौथी लड़ाई के मैदान में टीपू के वीरगति प्राप्त करने के बाद अंग्रेज सेनापति आर्थर वेल्सले का कथन था : ''अगर देशी शासको ने टीपू सुल्तान को पूरा सहयोग दिया होता तो हम शासक के रूप में बने नही रह पाते ''|
( होलम्स, प्रोफेसर रिचर्ड बेलिग़टन ( 2002 ) ; दि आयरन ड्यूक , लन्दन : प्रकाशक . हापर्र एंड कोलिस
ब्रिटिश संसद ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की टिकाऊ नीव रखने के लिए वेल्सले की सराहना की थी |
यह टीपू के प्रतिरोध और अंतरदृष्टि की महत्ता को दर्शाता है | केवल टीपू की मृत्यु के बाद ही ब्रिटिश सैन्य अधिकारी , जनरल हैरिस यह घोषणा कर सका कि अब से भारत हमारा है | टीपू सुल्तान की मौत के बाद आधी सदी तक ऐसा दूसरा कोई भी नायक नही था जिसने अंग्रेजो को चुनौती दी हो ""|
टीपू भारत के सर्वाधिक शौर्यवान और प्रबुद्ध शासको में से एक था | अपनी मातृभूमि से ब्रिटिश घुसपैठियों को खदेड़ना उसकी एक मात्र चाहत थी | हालाकि ''टीपू सुल्तान साम्राज्यवादियों की स्मृति में कुख्यात खलनायक के रूप में बना रहा .. लेकिन अपने समय के पैमाने पर वह आधुनिकता और प्रगति की अपनी खोज में नेपोलियन था | वह अपनी हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही प्रजा में लोकप्रिय था और राष्ट्रवादियो की बाद की पीढियों के लिए नायक था "| उन्नीसवी सदी में जब साम्राज्य ने इसाई इजीलवाद ( ईसा चरित ) को समर्थन देना शुरू किया तो भारत में अंग्रेजो के खिलाफ इस्लामी प्रतिरोध अपने चरम पर पहुँच गया |इसके बाद मुल्ला या इस्लामी आदिवासियों को अंग्रेजो के खिलाफ फिर से ताकत जुटाने में मुश्किल से साल भर लगा होगा |
वेल्लूर में उभार --
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जुलाई 1806 में , वेल्लूर स्थित अंग्रेजो की गढ़ी में मुस्लिम सिपाहियों ने जबरदस्त बगावत कर दी | नए नियमो के तहत सिपाहियों को ''चुस्त - दुरुस्त '' बनने , बालियाँ पहनना बंद करने , दाढ़ी मुड्वाने और नयी तरह की पगड़ी ''जो कि हैट से काफी कुछ मिलती जुलती थी ' को धारण करने का आदेश दिया गया | सिपाहियों को भय था कि अगर उन्होंने हैट पहनने के अंग्रेजो के रिवाज को अपनाया तो जल्दी ही उन्हें मुस्लिम से जबरन ईसाई बना दिया जाएगा | ' इसके बाद हमे दूर देश से आये काफिर अंग्रेजो के साथ खाने - पीने , विवाह में अपनी बेटियों को देने , उनके साथ एकाकार होने और उनके धर्म को अपनाने के लिए अभिशप्त होना पडेगा '|
जब मद्रास पैदल सेना की एक कम्पनी ने मई 1806 में नयी पगड़ी धारण करने से इन्कार कर दिया तो उन्हें गिरफ्तार करके मुकदमे के लिए मद्रास भेज दिया गया | उनके दो नेताओं को नियम विरुद्ध आचरण करने का दोषी पाया गया और उन्हें नौ सौ कोड़ो की सजा दी गयी | शेष सिपाहियों ने मन में गुस्सा पाले रखा और अपने अपमान का बदला लेने की योजना बनाई | दो महीने बाद 10 जुलाई को सुबह 3.00 बजे सिपाहियों की समूची सेना ने बगावत कर दी और सौ यूरोपीय सैनिको और दर्जन भर अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला | विद्रोहियों ने टीपू के एक बेटे को नया सुल्तान घोषित किया और थोड़े समय के लिए मैसूर के झंडे को किले की दीवारों पर लहराया गया | अंग्रेजो ने जल्दी ही बगावत का दमन करने के लिए अतिरिक्त सेना मँगवा लिया |
आगे दो दशक बाद 1828 में इसी प्रकार का टकराव हुआ | 'निजाम के घोड़े " के रूप में प्रसिद्ध इकाई के एक सरगर्म अंग्रेज लेफ्टीनेंट ने अपने मुस्लिम सिपाहियों को अपनी दाढ़ियाँ मुड्वाने का आदेश देकर वेल्लूर की गलती दोहराई | अपनी दाढ़ियों को सिर्फ छोटा करने का उनका समझौता लेफ्टिनेट के लिए काफी न था | उसने दो लोगो को परेड के समय जबरन सर झुकाकर दाढ़ी बनाने का आदेश दिया | सिपाहियों ने बगावत कर दी , वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारी को गोली मार दी और मस्जिद में जाकर छिप गये | लेफ्टिनेंट ने उनके छिपने के स्थान पर धावा बोला और वहाँ शरण लिए हुए सभी लोगो की हत्या कर दी "|
''वेल्लूर और निजाम के घोड़े ' का उभार आधी सदी बाद में चलकर 1857 में भारतीय विद्रोह के लिए रिहर्सल बना | 10 मैं 1857 को समस्त समुदायों ने साथ मिलकर समूचे उप - महाद्दीप में बगावत की | इस तरह , जिसकी शुरुआत बंगाल सेना की बगावत के रूप में हुई थी , वह शीघ्र ही अंग्रेजो को खदेड़ने के लिए समूचे भारत में आम जनता के विद्रोह में बदल गया |

प्रस्तुती --- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

पुस्तक - स्वाधीनता संग्राम में मुस्लिम भागीदारी

लेखक - डा पृथ्वी राज कालिया - अनुवाद - कामता प्रसाद

Tuesday, February 27, 2018

भारत के उपनिवेशवाद विरोधी और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में मुस्लिम सेनानियों की उल्लेखनीय भूमिका ---- 27-2-18

भारत के उपनिवेशवाद विरोधी और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में मुस्लिम सेनानियों की उल्लेखनीय भूमिका ----


समाज को बाटने वाले कुछ सगठन , साम्प्रदायिक नेता और दक्षिण पंथी हिंदूवादी कुछ लोग , मुस्लिमो को ''गद्दार ' और विदेशी के रूप में प्रचारित करके उन्हें कंलकित और अलग - थलग करने के लिए सक्रिय रूप से जुटे हुए है , लेकिन भारत की साम्राज्यवाद - विरोधी गौरव गाथा इस बात को पर्याप्त रूप से सिद्ध करती है कि किस प्रकार से हिन्दू और मुसलमान दोनों ही भारत से ब्रिटिश राज को खत्म करने के लिए दिलेरी से लड़े थे |
हिन्दू - मुस्लिम ब्रांड वाली साम्प्रदायिक राजनीति के झंडाबरदारो को , जिन्होंने मौजूदा समय के बाबरी मस्जिद राम जन्म भूमि विवाद के जरिये दोनों धार्मिक समुदायों के बीच हिंसा और अविश्वास को जन्म दिया है , यह याद दिलाये जाने की जरूरत है कि 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान '' यह वही अयोध्या थी जहाँ पर मौलवी और महंत तथा आम हिन्दू और मुस्लिम ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत करते हुए एकजुट हुए और उन्होंने फाँसी के फंदे को गले लगाया | मौलाना अमीर अली अयोध्या के मशहूर मौलवी थे और जब अयोध्या की प्रसिद्ध हनुमान गढी , हनुमान मंदिर के पुजारी बाबा रामचरण दास ने अग्रेजी हुकूमत के खिलाफ शस्त्र प्रतिरोध की अगुवाई की तो मौलाना इंकलाबी सेना में शामिल हो गये | अग्रेजो और उनके पिट्ठुओ के साथ लड़ाई में दोनों पकडे गये और उन्हें अयोध्या में कुबेर टीला पर एक साथ इमली के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया गया |""
फैजाबाद जिले में राजा देविबक्श सिंह की सेना की अगुवाई करने वाली इसी इलाके के ही अच्छन खान और शम्भु प्रसाद शुक्ला ने बहुत सी लड़ाइयो में अग्रेजी सेना को परास्त किया | लेकिन जब पकडे गये तो हिन्दुओ और मुस्लिमो के बीच इस प्रकार के भाईचारे को ह्त्तोस्साहित करने के लिए इन दोनों ही मित्रो को लम्बे समय तक सरेआम यातनाये दी गयी और उनके सिरों को क्रूरतापूर्वक धड से अलग कर दिया गया | यहाँ , यह याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफर को 11 मई 1857 को भारत का शासक घोषित करने वाली इंकलाबी सेना में 70% से अधिक हिन्दू सैनिक थे | स्वाधीनता के ''राष्ट्रीय युद्ध '' का नेतृत्व नाना साहेब , बहादुरशाह जफर , मौलवी अहमद शाह . तात्या टोपे , खान बहादुर खान , रानी लक्ष्मी बाई , हजरत महल , अजीमुल्ला खान और फिरोजशाह जैसे नेताओं ने सयुक्त रूप से किया था | ये प्रसिद्ध क्रांतिकारी विभिन्न धर्मो से ताल्लुक रखते थे |
इसके अलवा , 22 सितम्बर को मेजर हडसन ने बहादुर शाह जफर के बेटो और पोते मिर्जा मुग़ल , मिर्जा खिज्र और मिर्जा अबू बक्र की ऐतिहासिक खुनी दरवाजा के गेट पर हत्या कर दी गयी | शहजादे विद्रोहियों के साथ मिलकर जोरदार तरीके से लडे , लेकिन उनके उपर काबू पा लिया गया | 1857 के विद्रोह के दौरान खूनी दरवाजा मेहराबदार रास्ता न था न कि पारम्परिक अर्थ दरवाजा | अभिलेखागार कैसर - उल - तवारीख के वार्षिक वृत्तांत में इस बात का उल्लेख्य है कि भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857-58 के दौरान केवल दिल्ली में फांसी पर चढाये गये मुस्लिमो की सख्या 27 हजार थी , आम नरसंहार में मरे गये लोगो की संख्या इसमें शामिल नही है | मकबूल शायर मिर्जा ग़ालिब 1797 -1869 ने अपने पत्रों में इस प्रकार के नरसहारों का सजीव विवरण प्रस्तुत किया है | इसी प्रकार , बंगाल में हिन्दू मुस्लिम एकता के उद्देश्य को ध्यान में रखकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने बंगाल के अंतिम स्वतंत्र नवाब की स्मृति को सम्मान देने के लिए 3 जुलाई 1940 को सिराज - उद - दौला दिवस मनाने का आव्हान किया था | सिराज - उद - दौला ने ही सबसे पहले भारत की धरती पर उपनिवेशवादी ब्रिटिश एजेंटो को चुनौती दी थी | लेकिन अपने वोट बैंक के खातिर खासकर दक्षिण पंथी हिंदूवादी नेताजी के सैन्य नायकत्व की तो सराहना करते है पर हिन्दू - मुस्लिम एकता और धार्मिक अल्पसंख्यको के अधिकारों के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता की अनदेखी करते है | शहीदों को इस तरह से राजनितिक रूप से हथिया लेना ओछी और खतरनाक प्रवृत्ति है | हम करतार सिंह सराभा , अशफाक उल्ला खान और सुभाष चन्द्र बोस को धार्मिक आधार पर नही बाट सकते | उनके भविष्य - स्वप्न और विचारों को ठोस रूप में प्रस्तुत करने के लिए इन शहीदों को घिसी - पिटी छवियो से मुक्त करना जरूरी है | उपलब्ध अभिलेख इस बात को साबित करते है कि अंग्रजी हुकूमत के खिलाफ मुस्लिम प्रतिरोध की पहचान टीपू सुलतान नवम्बर 1750, देवनाहल्ली - 4 मई 1799 श्रीरंगपटनम के ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के खिलाफ संघर्ष के समय से की जा सकती है | यह टीपू ही था जिसने भारतीय शासको को झकझोरा और अंग्रेजो के खिलाफ संयुकत मोर्चा बनाने का आव्हान किया | इसके बाद 19वी सदी के प्रथामार्ध में अशरफ अहमद बरेलवी ने इस कड़ी को आगे बढ़ाया | उनका वहाबी आन्दोलन देश के कोने - कोने तक पहुच गया | यह विदेशी शासको को उखाड़ फेंकने के लिए सभी मुस्लिमो और हिन्दुओ को एक साथ आने की उनकी अपील का ही कमाल था कि बड़ी संख्या में स्नातको ने ब्रिटिश आकाओं की से1831 में उन्हें बालाकोट में मार डाला गया | ऐसे बहुत से दुसरे मुस्लिम नायक है जिन्होंने अपने गैर मुस्लिम साथियों के साथ गोलिया खाकर अपने जीवन की आहुति दी , फांसी पर क्लात्काए गये या उन्हें उम्र कैद मिली और वे अंडमान द्दिप की जेल में अकेले और उपेक्षित मरने के लिए भेज दिए गये | देश की आजादी के लिए भारत के मुस्लिमो की ऐसी गौरवशाली कुर्बानियों की शिनाख्त अतीत के सन्यासियों और फकीरों के विद्रोह 1763 - 1800 और उपनिवेशवाद विरोधी उल्लेखनीय वहाबी आन्दोलन 1820 - 1870 के समय से भी की जा सकती है | उस समय आक्रामक राष्ट्रवाद के आगमन के साथ हिन्दू और मुस्लिम संयुकत रूप से विभिन्न क्रांतिकारी समितियों में सगठित हुए और जिनमे उन्होंने हिस्सा लिया उनके नाम है -- तमिलनाडू की मित्र मेला महाराष्ट्र की अभिनव भारत , बंगाल की आत्मोन्नति , अनुशीलन सुहृदय ,साधना , ब्रतीब, संदेश , बाँधव समितियाँ और पंजाब की भारत माता समिति इसी तरह स्वाधीनता आन्दोलन के बहुत से महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को उलेमाओं इस्लाम तथा इस्लामिक कानून में प्रशिक्षित मुस्लिम विद्वान् का उनके 'फतवों ' के जरिये समर्थन प्राप्त था ; यह भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान मुस्लिमो की बहु आयामी भूमिका का अहम् हिस्सा था | यह अपनी बेमिसाल कुर्बानियों को दर्शाता है | जाहिर है कि समूचे भारत में मुस्लिमो ने अन्य भारतीयों के साथ प्रतिबद्ध स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में सहयोग किया | स्वाधीनता आन्दोलन में हिन्दुओ और मुस्लिमो के साझे प्रयासों की सराहना करते हुए देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने ठीक ही कहा था , ''यूरोप के आक्रमण के विरुद्ध एक एशियाई के रूप में हम एकता के साझे बंधन को महसूस करते है | ''इस सबके बावजूद मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों की भूमिका को उस तरह से चिन्हित नही किया गया जैसा की उसे किया जाना चाहिए था | बड़े हैरत की बात है कि मौजूदा पीढ़ी , मुख्यत: उग्र हिन्दू , दुखद रूप से पूरी तरह पूर्वाग्रह ग्रस्त है और सोचते है कि यह केवल हिन्दू ही थे जिन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में संघर्ष करके स्वाधीनता हासिल की | वे बस गिनती के कुछेक मुस्लिमो , अली बंधू खान अब्दुल्ला गफ्फार खा ,शेख अब्दुल्ला , मौलना अबुल कलाम आजाद और डा जाकिर हुसैन के योगदान को ही इसमें शामिल करते है |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

पुस्तक -- स्वाधीनता संग्राम में मुस्लिम भागीदारी - डा पृथ्वी राज कालिया

अनुवाद -- कामता प्रसाद

जातिप्रथा और गुलामी - 27-2-18

जातिप्रथा और गुलामी -


डा राम मनोहर लोहिया 8जुलाई 1961

हम लोग बहुत बा गुलाम हुए है | ऐसा नही कि सिर्फ अंग्रेज रहे हो | उसके पहले मुसलमान थे , बल्कि मुसलमान भी गुलाम रहे | तैमुरलंग ने पांच लाख आदमी क़त्ल किये | मामला हिन्दू - मुसलमान का नही देशी - परदेशी का है | अफगान मुसलमान पठान मुसलमान को खत्म करता है | इतिहास से सबक लेना है | नादिरशाह का आना मुग़ल साम्राज्य को खत्म करने वाला हुआ | मुसलमान को भी इसको समझना होगा | 1.500 बरस से हमेशा इस देश में देशी - परदेशी का सवाल रहा है | परदेशी हमेशा जीतता रहा है | इसका बड़ा सबब है कि हिन्दुस्तान के लोगो ने कभी भी अंदरूनी अत्याचार के खिलाफ बगावत नही की | इंगलिस्तान में पांच सौ साल में चार बार जुल्म करने और बादशाही करने वालो के खिलाफ बगावत हुई | लेकिन हिन्दुस्तान में पिछले दो हजार साल में कभी भी देशी अत्याचार के खिलाफ बगावत नही की गयी | यह कोई अच्छी बात नही है | बाहर के लोग जालिम के खिलाफ बगावत करना जानते है , देशी के भी | लगता है हम लोग देशी के खिलाफ बगावत करना भूल गये है , क्योकि कभी किया नही | सारी दुनिया में छोटे - बड़े का फर्क है | लेकिन हमारे यहाँ तो आकाश - पाताल का फर्क है | मिसाल के लिए अमरीका में तो भंगी की भी तनख्वाह 1.300 रूपये है और वहाँ के कलेक्टर की करीब 6.000 रुपया ! अपने यहाँ कलेक्टर को नाम के लिए तो 700 रूपये से 1.000 तक मिलते है लेकिन तनख्वाह के अलावा कितनी और सुविधा मुफ्त मिल जाती है - मोटर आलिशान बंगला वगैरह | शहर की बढिया - बढिया जमीने , सरकारी अफसर लोग अपने क्लब के लिए मामूली दामो में दो चार रूपये गज में ले लेते है | लेकिन भंगी को पचास - साठ रूपये ही | छोटे बड़े का फर्क और देखे | देहात का खेत मजदूर उसको रुपया - आठ आना रोज पड़ता है | रिक्शा वाला , पल्लेदार कड़ी मेहनत के बाद कितना पाता है ? यही तीन रुपया के करीब | और यह कमाना भी फेफड़ो को खत्म करके होता है | हिन्दुस्तान में सबसे छोटे आदमी , खेत मजदूर की तनखाह पच्चीस - तीस रुपया महीना | हिन्दुस्तान में सबसे छोटे आदमी , खेत मजदूर की तनखाह पच्चीस - तीस रुपया महीना | और अमरीका में सबसे कम मजदूरी 1.300 रूपये | वहाँ कूड़े की गाडी चलाने वाला भी करीब 6.400 रूपये पाता है | और बड़ा अफसर 6.000 | यहाँ छोटा 50 रूपये और बड़ा कलेक्टर 6.000 रूपये गांधी जी ने सादगी और कर्तव्य की जिन्दगी की सीख दी , लेकिन बदनसीबी की देश के मंत्रियो का मन बदला कि हम अमरीका - यूरोप की तरह रहे और देश को भी वैसे ही बनाये | अमरीका के राष्ट्रपति की गाड़ी आठ लाख रुए की है | नेहरु साहब ने अमरीका में देखा तो लौट कर फ़ौरन फैसला किया कि हम भी ऐसी गाडी रखेंगे और स्विट्जरलैंड से वैसी ही गाड़ी आठ लाख रूपये मे मगाई गयी | हमारा सबसे बड़ा रोग रहा है , और है , कि हम नकलची है | डाक्टर या वकील भी जो अमीर है ज्यादा फीस दे सकते है , उसको पहले देखता है उसकी ज्यादा खबर रखेगा | यूरोप में बड़ा से बड़ा डाक्टर , जिस हिसाब से जो आता है उसी हिसाब से देखता है , चाहे छोटा हो या बड़ा | हमारे यहाँ मिसाल के लिए दो बच्चे है , एक छोटा , निमोनिया का बीमार और अमीर का मामूली बीमार | डाक्टर किसको पहले देखेगा ? अमीर के बच्चे को | यह मुल्क गिर गया है | हम लोगो के मन भी ठीक नही रहे | ईमारत बस एक छोटी - सी नोक पर टिकी है | दुकानदार भी छोटे बड़े का फर्क करता है | अच्छे कपडे वाले को खूब दिखाएगा और फटे कपडे वाले को एक दो ही | दुनिया में छोटे बड़े का फर्क जन्म के हिसाब से नही पैसे , पढाई वगैरह से होता है | यहाँ जात का फर्क , रूपये , ओहदा वगैरह से नही जन्म के मन से है | ब्राह्मण , बनिया , शेख , सयैद बड़ी जात है | लोहार , कहार , नाइ , जोलाहा , धोबी , माला , मदिगा वगैरह तमाम सब नब्बे फीसदी है | इनका दिमाग जात - पात के भेद ने जकड़ दिया है | इनको आगे लाये वगैर मुल्क नही बन सकता , जैसे हाथ को हिलाओ - डुलाओ नही तो लकवा लग जाएगा | इसी तरह इनको 2.000 साल से लकवा लग गया है , जकड़ दिए गये है ! यही है मूल में गुलामी का कारण , और अगर सुधरे नही , तो फिर गुलाम होने का खतरा है |
इस हालत को बदलना आसान नही है , क्योकि और जगह तो छोटा आदमी सगठन अपना बना भी लेता है | यहाँ इन्कलाब करने की हिम्मत नही करता , सोचता भी नही | गरीब झोपडी वाला थक गया है , उसके मन को यकीन नही होता कि वह भी राजा बन सकता विशवास न जमने का कारण रहा है , उसके साथ पिछले दो हजार साल से लगातार दगाबाजी | विशवास उठ गया है | दूसरे देशो में ख्रुश्चेव गडरिया का लड़का , ताकत में बड़ा , स्टालिन चमार का बेटा , हिटलर जर्मनी वाला कारीगर ,- राज का बेटा | इग्लिस्तान के भी , जिनसे हाथ मिलाने को लोग लार टपकाते है , वही बवान मारिसन कोयला खदान मजदूर , सडक पर अख़बार बेचने वाले रहे है | क्या दो हजार बरस में हमारे देश में छोटे पेशे वाले आदमी कभी बढ़ा ही नही , हिन्दुस्तान का बड़ा आदमी बना है ? इधर पाँच - दस साल में एक ही दीखता है , श्री जगजीवन राम | असल में वह भी बड़ा नही हुआ | जिस प्रकार चिड़िया पकड़ने के लिए लासा लगाया जाता है उसी प्रकार देश के चमार पकड़ने के लिए श्री जगजीवन राम का लासा लगाते है | इसी तरह मुसलमानों में भी लासा लगाते है | मुस्लिम लीग को केरल में उठाना , फिर काम निकल जाने के बाद धता बता देना ! लिगायत और वक्कालिंगायत को उठाने वाली बात भी सोचना | मैसूर की आबादी कुल तीन करोड़ के करीब है | इसमें पचास लाख के करीब लिंगायत और वक्कालिंगा लोग है और बाकी ढाई करोड़ दूसरे बिखरे हुए है | और सबका ये 50 लाख लायदा उठाते है | इनमे भी सबका नही बल्कि दो तीन हजार का फायदा होता है | और ये लोग सिर्फ फायदा उठाने वालो के नाम का इस्तेमाल करते है | ये लोग सिर्फ पुरानी पलटन को इकठ्ठा करते है | जरा डुग्गी पिटी , खड़ी हो गयी पुरानी पलटन | नई पलटन खड़ी करना तो बहुत मुश्किल है | यह तो सोशिलिस्ट पार्टी को ही करना है और वह कर रही है लेकिन मुसीबत है कि सब दबे हुए लोग इस नयी पलटन में भरते नही होते | इसको कैसे दूर किया जाए ? एक तरीका है | एक तरफ आदमी का नियम बनाना चाहिए और दूसरी तरफ बराबरी का नियम | कम से कम ऐसी हालात पैदा करनी चाहिए की गैरबराबरी ज्यादा न हो | जैसे , समाजवादियो का फैसला है की आम्द्नियो में से दस से ज्यादा का फर्क न हो , मानी अगर कम से कम 100 हो तो ज्यादा से ज्यादा 1000 | ऐसा नही की बिडला एक दिन में एक लाख पैदा करे और प्रधानमन्त्री पैदा तो कुछ न करे लेकिन पच्चीस हजार रूपये रोज खर्चा करे | सरकारी सेठ और कारखाने का सेठ , दोनों सेठो को खत्म करना चाहिए | इसके लिए समाजवादियो का एक और दस का सिद्धांत अपनाना पडेगा | जाति मिटाने का भी कोई तरीका अपनाना होगा | दो हजार सालो से दबे हुए है , उनको उठाना होगा | लोग कहते है कि पहले इनको पढाओ लिखाओ | दो हजार साल लगातार दबे रहने से परिपाटी बन गयी है | मारवाड़ी का लडका व्यापार की कला में कुशल हो गया है , ब्राह्मण - कायस्थ वगैरह दिमाग में जैसे काम चला लेते है वैसा ये नही कर सकते | दबे को सिर्फ पढ़ाने से काम नही चलेगा , क्योकि संस्कार और परिपाटी की वजह से ऊँची जाति वाले ही आगे रहेंगे | छोटी जात को उठाने के लिए सहारा देना पडेगा | जैसे हाथ लुंज हो जाने पर सहारा देते है , और तब हाथ काम करने लगता है , उसी तरह इन नब्बे फीसदी दबे हुए लोगो को सहारा देना होगा , उस समय तक जब तक हिन्दुस्तान में बराबरी न आ जाए | इसीलिए समाजवादी पार्टी कहती है कि 100में कम से कम 60 ऊँची जगहे इनको दो जिनमे हरिजन , शुद्र आदिवासी जुलाहा अंसार धुनिया औरत वैगरह है |


प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - पुस्तक हिन्दू बनाम हिन्दू

Thursday, February 22, 2018

गुलामी कही गयी नही दुःख हमारी चमड़ी को छूकर जाती है -- प्रो चन्द्रकला त्रिपाठी -- 22-2-18

गुलामी अभी भी है कहीं गयी नही- दुःख हमारी चमड़ी को छूकर जाती है - प्रो चन्द्रकला त्रिपाठी

पृथ्वी अपनी गति की दिशा के विपरीत नही जाती , मनुष्य की चेतना भी विकास के उलट नही जाती | मनुष्य को ऊँचाइया और गहराइया चाहिए | उसे श्रेष्टतर साहित्य , संगीत , कला , विज्ञान और श्रेष्ठतर मानवीय सम्बन्ध चाहिए | वह उलट कर बर्बरता , जड़ता और अज्ञान की यात्रा नही करना चाहता गाथांतर स्त्रियों की प्रजातंत्र है जो आजादी मुक्ति की बात करती है , लेकिन पुरुष समाज स्त्रियों को परम्परा , संस्कृतियो की बेदी में जकड़ कर बाँधना चाहते है गाथांतर सम्मान समारोह में पद्मश्री उषा किरण खान जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि ख़ास तौर पर बिहार और उत्तर प्रदेश में सामन्ती तरीका विशेष रूप से रहा है ऐसे में जब बिहार के चम्पारण में गांधी जी द्वारा आन्दोलन चलाया गया , उससे एक नई चेतना की जागृति आई और उस समय घर से बहार निकली स्तरीय और आजादी के आन्दोलन में कूद पड़ी , महात्मा गांधी के कारण ही महिलाओ को बड़ा लाभ मिला | उन्होंने आगे कहा कि जिस तरह मैथली भाषा को साहित्य एकेडमी में स्थान मिला है उसी तरह भोजपुरी को भी मिलना चाहिए उषा किरण खान जी ने अपनी चर्चा में कहा की इसके जिम्मेदार आचार्य हजारी प्रसाद द्दिवेदी जी के कारन भोजपुरी को यह न्याय नही मिला जब साहित्य एकेडमी में मैथली भाषा को स्थान दिया जा रहा था , उसी समय आचार्य हजारी प्रसाद द्दिवेदी जी ने मन कर दिया की भोज्पुरो को इसमें शामिल न किया जाए | उन्होंने एक जिवंत पात्र की कहानी की चर्चा करते हुए गुलाबो की कहानी सुनाई गुलाबो जो एक तवायफ की बेटी थी जिसमे एक राजा का भी अंश था , राजा ने गुलाबो को उच्च शिक्षा दिलाई उच्च शिक्षा प्राप्त करके गुलाबो ने अध्यापन का कार्य किया आज उनकी दो बेतिया उच्च शिक्षा प्राप्त करके समाज में उनका नाम रोशन कर रही है |

कहानीकार किरण सिंह जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि आज के युग में नारी चेतना विकसित हुई है जिसके चलते आज की औरते आगे बढ़ रही है उनके पास खोने के लिए अपने जंजीरों के सिवाए कुछ भी नही है , इसलिए वो अभिव्यक्ति के खतरे उठा रही है इसी की प्रतिक्रिया के कारण उसकी आवाज को दबाने के लिए उसके उपर तेज़ाब फेका जा रहा है उसके साथ बलात्कार किया जा रहा है तरह - तरह के आरोप लगाकर उसे बदनाम किया जा रहा है , उन्होंने आगे कहा समाज स्त्री की प्रतिभा से डरता है आगे ये आगे आ गयी तो हमारी जगह खतम हो जायेगी , स्त्री जैसा की उसकी स्वभाव होता है सबको मिलकर चलना चूँकि वो जननी होती है प्राकृतिक रूप से उसे सृजन करना आता है इसके कारण तथाकथित पुरुष समाज अपने को असुरक्षित महसूस कर रहा है आज हर स्त्री और लडकियों में इनकार करने का साहस संचार हुआ है इसके कारन तथाकथित पुरुष समाज के प्रतिनिधि वो इस इनकार को शान नही कर पा रहे है , उनके लिए आज भी स्त्री मात्र भोग की वस्तु है इसी कारण से वो दिखाना चाहते है इस तरह के अन्याय से कि मात्र भोग की वस्तु हो यही बनकर जीना सीखो किरण सिंह ने आगे कहा की आज स्त्रियों का यह संक्रमन दौर है यह दौर भी खत्म होगा यह निश्चित है आने वाला न्य सवेरा जरुर आयेआ उन्होंने आज की व्यवस्था पे तंज कसते हुए खा आज प्रधान सेवक ने न्याय व्यवस्था को भीद्तंत्र के हाथो सौप दिया है इसी कारन आप देखे सडक हो खेत -- खलिहान हो हर तरफ हिंसक भीड़ ऐसे कृत्य कर रही है जो अशोभनीय है | यह लोग हिंसक प्रवृत्ति को और तेज भड़का रहे है | 

कार्यक्रम की अध्यक्षा प्रो चन्द्रकला त्रिपाठी जी ने अपने वक्तब्य में कहा किआज आजमगढ़ से गाथांतर के माध्यम से एक नई नारी चेतना, स्त्री रचनात्मकता , स्त्री क्षमता का आयोजन में एक बड़ी भागीदारी साथियो का है निश्चित ही यह इतिहास के पन्नो पर आज दर्ज हो गया , उन्होंने कहा कि लगता है हर स्त्री ऐसे किसी अगले जन्म की प्रतीक्षा कर रही है जो आने वाला नही है , स्त्री के विकास और उसकी आजादी को लेकर जो दुनिया है वो बहुत दूसरी ओर खड़ी है | आजादी के संघर्ष में गांधी के दौर स्त्रिया आई लड़ने के लिए उन्हें एक बड़ी दुनिया मिली उन्हें आजादी मिली ज्ञान का दरवाजा खुला स्त्री जब बाहर आई तो उसकी क्रांन्तिकारी सहभागिता बढ़ी उसकी दुनिया का सपना है जब वो मनुष्यों की तरह रह सके और जी सके , आज के समाज में तथाकथित पुरुष वर्ग को वो नारिया कदापि पसंद नही आती जो अपने जोर - साहस और हस्तक्षेप से अपने होने की निशानदेही करती है |आज स्त्रियों को बाजार में बिकने का सामन बना दिया गया , आज का बाजार उसके हर अंग को बेचकर पैसा बना रहा है किरण सिंह गीताश्री ने अपनी कहानियो के माध्यम से जो नई चेतना का विकास कर रही है उससे लगता है न्य दिन आयेगा | दुनिया ऐसे नही बदलती आप बदलना शुरू करिये कौन कितना बदल रहा है यह बड़ा प्रश्न है गुलामी अभी भी है कही गयी नही है दुःख हमारी चमड़ी को छूकर जाती है | आज आजमगढ़ की धरती ने गाथांतर के माध्यम से नया आगाज किया है नई चेतना का सृजन किया है और यही सृजन एक दिन स्त्री क्रान्ति के रूप में परिवर्तित होगी |
कार्यक्रम आज़मगढ़ शहर के नेहरू हॉल में गुरुवार को गाथांतर समारोह का आयोजन किया गया है।पूर्वांचल के आज़मगढ़ जिले में महिलाओं द्वारा आयोजित यह पहला साहित्यिक सम्मान है।

गाथांतर हिन्दी पत्रिका द्वारा साहित्य ,रंग मंच एवं कला के क्षेत्र में ज़मीनी संघर्ष से विशिष्ट पहचान बनाने वाली महिलाओं को गाथांतर सम्मान वर्ष 2014 से दिया जाना आरम्भ किया गया। पहला गाथांतर सम्मान प्रसिद्धि रंग कर्मी ममता पंडित को दिया गया था। पिछले दो वर्षों से आर्थिक संसाधनों के अभाव में सम्मान स्थगित रहा। अपने चार साल की यात्रा में पत्रिका ने समकालीन कविता विशेषांक और स्त्री लेखन की चुनौतियाँ विशेषांक निकाल साहित्य जगत में चर्चा में रहा है।
गाथांतर सम्मान 2015 पद्मश्री उषा किरण खान को लोक साहित्य एवं आंचलिक भाषा मैथली के संरक्षण एवं संवर्धन में विशेष योगदान के लिए,
2016 प्रो.चन्द्रकला त्रिपाठी को हिन्दी आलोचना विधा में महत्वपूर्ण स्त्री स्वर के लिए,
2017 किरण सिंह,पहले कहानी संग्रह यीशू की किलें को, 2018 गीता श्री हसीनाबाद को दिया गया | कार्यक्रम संचालन मृदुला शुक्ला जी ने किया
कार्यक्रम में नगरपालिका अध्यक्षा श्रीमती शीला श्रीवास्तव ,अनामिका सिंह पालीवाल, अनीता साईलेस,कंचन यादव,रानी सिंह,अनामिका प्रजापति,अंशुमाला, सोनी पाण्डेय,

Tuesday, February 20, 2018

हमारा लखनऊ --- जनान बाजारी -- भाग छह 20 -2-18

हमारा लखनऊ --- जनान बाजारी -- भाग छह



लखनऊ ही नही वरन विश्व के हर नगर वैश्याओ के बाजार से गर्म रहे है ; कारण कि विश्व के हर कोने में कुछ न कुछ ऐसी विकृत मानसिकता वाले लोग मिल ही जाते है जो अनेकानेक स्त्रियों से शारीरिक सम्पर्क स्थापित करने में गौरव महसूस करते है | हाँ ! विश्व के अन्य शहरों की तुलना में लखनऊ में वैश्याओ की उपस्थिति अपने में कुछ विशिष्टताए समेटे ही है | इनकी बात कुछ अलग रही है | लखनऊ की वैश्याए कभी इस शहर की शान समझी जाती थी , जिसका कारण था उनकी सभ्यता उनकी सज्जनता , उनका शिष्टाचार और उनकी मिठ- बोलिया अनूठी थी | अच्छे वस्त्रो एवं आभुश्नो से सुसज्जित तो ये रहती ही थी | लखनऊ की ऐसी वैश्याए , जो रहन - शान की उपरोक्त विशिष्टताओ को अपने जीवन शैली में न उतर सकी , उन्हें समाज के शौक़ीन लोगो न न कि मात्र नकार दिया , वरन वे अपने क्षेत्र में भी तिरस्कृत व उपेक्षित रही | परिणामत्या वे अपने ही समूह में अपने आपको अलग - थलग पाने लगी |
सामने वैश्याओ के घर साफ़ सुधरे हुआ करते थे और घरो के अन्दर के वे कमरे , जहां उनके अपने ग्राहकों से मेल - मिलाप होता था , वहाँ की फर्शो पर साफ़ - सुधरी चद्दरे बिछी होती थी | कही - कही गलीचे बिछाए जाने किम व्यवस्था होती थी |
इन वैश्याओ की दिनचर्या प्रात:काल के बजाए सायंकाल से कुछ इस प्रकार प्रारम्भ होती थी कि मानो अस्त होता सूरज इन्हें संदेश दे रहा हो कि उठो ! अब तुम्हारे उदित होने का समय अ गया है | बस ! यही से जनान - बाजारी की गलिया मचल उठती थी | इन गलियों की छतो व कोठो के छ्जो पर नहाए धोये और सुन्दर वस्त्रो व आभुश्नो से सजकर वैश्याए चौक की और मुँह करके अपने चहेतों की प्रतीक्षा में बैठ जाया करती थी | लखनऊ की समर्थ व सम्पन्न वैश्याओ में अधिकाश चौक की इन्ही गलियों में बने कोठो पर आबाद थी | इन गलियों में प्रवेश लेने वाले वास्तविक वेश्यागामी जन इनके कोठो पर निसंकोच पहुच जाते जाते | हाँ ! कुछ लोग भी , जो उन तक खुले आम पहुचना पसंद नही करते थे | उनकी सुविधा के लिए मकान के पीछे दरवाजा हुआ करता था | बहरहाल इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों की आवाजाही से इन गलियों की चल - पहल बढ़ जाती थी |परिणाम स्वरूप , कभी - कभी ऐसा भी हो जाता था कि एक ही छज्जे के नीचे चचा - भतीजे , बड़े व छोटे भाई आदि की परस्पर मुलाक़ात हो जाया करती थी जिससे दोनों ही लोग एक विचित्र दुविधा की स्थिति में पहुच जाते थे |
इन वैश्याओ के यहाँ अपनी कुछ अदब - तहजीब की स्थापित परम्पराए हुआ करती थी , जिसका अक्षरश: पालन होता था | इन्ही वैश्याओ में कुच्छ एक ऐसी भी थी , जिनको संगीत शास्त्र की अच्छी जानकारी हुआ करती थी | साथ ही वे रूपवती भी होती थी जिसके कारण उन्हें प्राय: अच्छी महफ़िलो में प्रवेश मिल जाया करती | शादी - व्याह जैसे उत्सवो में उन्हें मुजरे के लिए भी आमंत्रित कर लिया जाता था जिसके बदले उन्हें उचित प्राश्र्मिक दिया जाता था | संगीत शास्त्र की जानकार वैश्याओ का कला पारखियो के बीच सम्मान होता था तथा ऐसे कला प्रेमी उनसे मित्रता करने में कोई संकोच नही करते थे | खुशहाल रईसों की एक आन अवश्य रही कि वे अपनी स्वंयम की तृप्ति के लिए किसी नई ख्याति लब्ध सुन्दरी वैश्या के घर नही जाते थे | यदि कोई ऐसी वैश्या उनके मन भा गयी तो किसी दलाल के माध्यम से उसे अपने घरो पर बुला लिया करते |

Monday, February 19, 2018

कर संग्रह में 18 % की उछाल -- 19-2-18

कर संग्रह में 18 % की उछाल --

आखिर यह चमत्कार हो कैसे रहा है ?

{ विडम्बना यह है कि प्रत्यक्ष कर - संग्रह में यह उछाल देश में धनाढ्य एवं उच्च आयवर्गो के लोगो की बढती संख्या के मुकाबले बहुत कम है | इसीलिए यह प्रत्यक्ष कर संग्रह में उछाल नही , बल्कि उसमे कमी या गिरावट का ध्योतक है }

प्रत्यक्ष करो में उछाल की सूचना 10 फरवरी के समाचार पत्रों में आई हुई है | उन सूचनाओं के अनुसार चालू वित्त वर्ष 2017 - 18 के दिसम्बर तक प्रत्यक्ष करो का कुल संग्रह 6.56 लाख करोड़ रूपये का रहा है | यह प्रत्यक्ष कर संग्रह 2016 - 17 के इसी अवधि 1 अप्रैल से 31 दिसम्बर के दौरान के कर संग्रह से 18.2% अधिक है | इसी के साथ यह सूचना भी आई है कि इन नौ महीनों में सरकार ने वर्तमान वित्तीय वर्ष के अनुमानित प्रत्यक्ष कर संग्रह का 67 % हिस्सा प्राप्त कर लिया है |
प्रत्यक्ष करो में कारपोरेट टैक्स या निगम कर , सम्पत्ति कर और व्यक्तिगत आयकर शामिल है | इन टैक्सों की देनदारी धनाढ्य कम्पनियों तथा उच्च एवं बेहतर आय के लोगो के लाभों - मुनाफो , पूंजियो , सम्पत्तियों एवं वेतन भत्तो के आधार पर निर्धारित की जाती है | प्रत्यक्ष कर की कुल मात्रा के बारे में यह सूचना भी प्रकाशित हुई है कि केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2017 - 18 के लिए 8.8 लाख करोड़ रूपये का लक्ष्य निर्धारित किया था | उससे पहले अर्थात 2016 - 17 के बजट में कुल प्रत्यक्ष कर संग्रह 8.49 लाख करोड़ था |
केन्द्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा समाचार पत्रों में प्रत्यक्ष कर संग्रह में 18 % के उछाल के आंकड़ो को ऐसे प्रचारित किया जा रहा है , मानो यह कर संग्रह वास्तव में बहुत बढ़ गया हो | सरकार धनाढ्य वर्गो तथा उच्च एवं बेहतर आयवर्ग के लोगो से उनके बढ़ते मुनाफो , पूंजियो एवं सम्पत्तियों तथा आमदनियो के फलस्वरूप उनसे ज्यादा टैक्स वसूलने में सफल हो गयी है | क्या सचमुच ऐसा हुआ है ?
इस पर अपनी तरफ से कुछ कहने से पहले हम दिसम्बर 2017 में केन्द्रीय कर बोर्ड {सी बी डी टी द्वारा} जारी किये गये आंकड़ो को प्रस्तुत कर दे रहे है | इन आंकड़ो में दर्शाया गया है कि 2015 - 16 के दौरान आयकर श्रेणी में आने वाले 2.18 करोड़ वेतन भोगी करदाता ने कोई आयकर नही दिया है
ऐसा इसलिए सम्भव हुआ कि करो में मिली छूटो के चलते इनकी घोषित आय कर दायरे से बाहर हो गयी | इन छूटो में स्टैन्डर्ड डीडकशन तथा आयकर कानून की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत दी जाने वाली कर छूटे शामिल है | यह भी हो सकता है कि उन्होंने अपनी आय व बचत का हिस्सा सरकार की किसी योजना परियोजना में घोषित रूप में निवेशित कर रखा हो | आवासीय ऋण भी ले रखा हो | इन दोनों के लिए आयकर में किसी भी सीमा तक छूट मिली हुई है |
इस आंकड़े में बेहतर आय वर्ग के गैर वेतन भागियो की संख्या शामिल नही है | जबकि यह कोई छिपी हुई बात नही है कि योग्य आय वर्ग के गैर वेतनभोगी लोग कर छूट लेने के मामले में पहले से ही उस्ताद रहे है | कर योग्य आय वाले व्यापारी एवं अन्य उच्च आय वाले पेशेवर लोग आयकर के दायरे से या तो बाहर रहते है या बहुत कम कर चुका कर छुट्टी पा जाते है | इस सन्दर्भ में तथ्यगत सूचना यह है कि आयकर देने वाले 97 % या कहिये 90% अधिक हिस्सा वेतन भोगियो का ही है | उच्चस्तरीय निजी आय करने वालो की संख्या 8 - 9% से अधिक नही है | जाहिर सी बात है कि वेतन भोगियो द्वारा घोषित छूटो के जरिये आयकर बचाने से कही ज्यादा संख्या में 2.18 करोड़ से अधिक ज्यादा संख्या में उच्च आयवर्ग के गैर वेतनभोगी लोग नौजूद है , जो आयकर नही देते है | इसी तरह से धनी मानी वर्गो पर लगने वाले निगम कर को भी पिछले 28 सालो में 50% से घटाकर 30% कर दिया गया है | इस 30% में तमाम छूटो को जोड़ने के बाद वास्तविकता निगम कर 23% से अधिक नही होता | इसके अलावा निगम कर व आयकर के बहुतेरे मामले सालो साल तक मुकदमे में अटके रहते है | यह भी जानी समझी बात है कि निगमकर की छूटो को बढाने के साथ - साथ आयकर की सीमा को हर साल या हर दो साल बाद बढ़ा दिया जाता है | प्रत्यक्ष करो में लगातार बढाई जाने वाली इन छूटो के वावजूद संग्रह में 18% से अधिक का उछाल आया हुआ है आखिर यह चमत्कार हो कैसे रहा है | दरअसल इसमें कोई चमत्कार नही है | इसका कोई नक्षत्रीय या आसमानी कारण नही है | इसका सर्वप्रमुख एवं जमीनी कारण यह है कि साल दर साल खरबपतियो ,अरबपतियो एवं करोडपतियो की संख्या में होती रही वृद्धि से छूटो एवं कर चोरियों के वावजूद कर संग्रह में वृद्धि होती रही है | दिसम्बर 2017 में आयकर विभाग द्वारा जारी आंकड़ो के अनुसार देश में करोडपतियो की संख्या में 23.5% की वृद्धि हुई है |
2015 - 16 में लगभग 60 हजार लोगो ने अपनी वार्षिक आय एक करोड़ से अधिक बताया था | इनकी कुल घोषित आय 1.54 लाख करोड़ थी | इससे एक साल पहले 2014 - 15 में एक करोड़ से ज्यादा वार्षिक आय वालो की संख्या 48 हजार से थोडा उपर थी | स्वाभाविक बात है की २2015 - 16 में करोडपतियो की संख्या जिसमे अरबपतियो खरबपतियो की संख्या भी शामिल है अब 2017-18 में और ज्यादा बढ़ी होगी |
इसका स्पष्ट आंकडा अभी प्रकाशित नही हुआ है | लेकिन इसका अंदाजा इस बात से लग सकता है कि एक साल पहले जारी रिपोर्ट में बताया गया था कि देश में 1% अमीर लोगो के हाथो में कुल दौलत का 58% हिस्सा सकेंद्रित है | 23 जनवरी के समाचार पत्रों में अन्तराष्ट्रीय अधिकार समूह आम्सफैम द्वारा जारी रिपोर्ट में इस सकेंद्रण में जबर्दस्त उछाल बताया गया है | रिपोर्ट के अनुसार अब देश में एक प्रतिशत सर्वाधिक धनाढ्य लोगो के हाथ में कुल दौलत का 73% हिसा हो गया | स्वाभाविक है कि दौलत के संकेन्द्रण के इस जबर्दस्त उछ्हाल में देश की 1% आबादी में बड़ी संख्या करोडपतियो और अरबपतियो , खरबपतियो की ही संख्या मौजूद है | समाचार पत्रों में कर संग्रह में इस प्रचारित उछाल को सरकार और राजकोष के लिए राहत की बात बताई गयी है | जबकि दरअसल ऐसा नही है | निसंदेह वास्तविक प्रत्यक्ष कर की देनदारी से कही कम देनदारी कर रहे धनाढ्य एवं उच्चवर्गो के लिए प्रत्यक्ष कर संग्रह में उछाल उनकी झूठी प्रशंसा के साथ उनके लिए राहत की बात भी है | क्योकि कर संग्रह में उछाल के नाम पर कर चोरियों पर पर्दा पड़ जाना है बताना जरूरी नही है कि उनके पूंजियो एवं उच्चस्तरीय आमदनियो ,सम्पत्तियों में तीव्र उछाल के साथ उनके क़ानूनी एवं गैरकानूनी कर चोरियों का दायरा भी बढ़ता रहा है |लेकिन इसके फलस्वरूप राजकोष का घाटा निरन्तर बढ़ता ही रहा है | और उसकी पूर्ति जनसाधारण द्वारा मालो एवं सेवाओं के खरीद में व्यापक रूप से चुकाए गये अप्रत्यक्ष करो से होता रहा है |जी एस टी के नाम पर थोपी गयी मूल्य सम्वर्धन की टैक्स प्रणाली इसी का सबूत है | अप्रत्यक्ष कर संग्रह की मात्रा में साल दर साल तेजी से हो रही बढ़त भी इसी बात का सबूत है |

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - साभार - चर्चा आजकल

तवायफे -- गदर के बाद - भाग पाँच 19-2-18

तवायफे -- गदर के बाद - भाग पाँच
लखनऊ में ब्रिटिश साम्राज्य प्रस्थापन के पूर्व लखनऊ की पूर्व स्थापित भद्र तवायफे यहाँ की उच्च कोटि की संस्कृति का प्रतीक हुआ करती थी | उनका भारतीय अभिजात संगीत ( शास्त्रीय संगीत ) के प्रचार - प्रसार व उठान में अहम् योगदान रहा है | नृत्य के अभिनय पक्ष में उनकी कोई सानी नही थी | प्रारम्भ में इन्ही तवायफो के माध्यम से लखनऊ में जन्मी बोल बनाव की ठुमरी तथा कथक नृत्य का सर्वत्र प्रचार - प्रसार हुआ | लखनऊ के नवाबो का प्रश्रय पाकर वे न कि मात्र आर्थिक रूप से सम्पन्न हुई वरन उनमे से जो विदुषी थी वे नवाबो की परामर्शदाता भी हुई | यदाकदा इन लोगो ने नवाबो द्वारा लिए जाने वाले अहम् निर्णयों को भी प्रभावित किया |
लखनऊ की तवायफो एवं संगीतज्ञो को सबसे बड़ा झटका सन 1857 की गदर के समय हुआ | चूँकि उपरोक्त क्रान्ति का मुख्य केंद्र चौक व उसके आसपास का क्षेत्र था , अत: सबसे बड़ी आपदा उस क्षेत्र के संगीतकारों एवं तवायफो और वैश्याओ पर आ पड़ी | ये सभी अपनी जान बचाकर भागने लगे | दूसरी और नवाब वाजिद अली शाह के सरक्षण में उनके महल में पल रही तवायफो में से कुछ तो नवाब के साथ बंगाल स्थित मटिया बुर्ज चली गयी और कुछ कानपुर , पटना तथा अन्य शहरों को पलायन कर गयी बची खुची तवायफो ने लखनऊ शहर के निकट ही बने मकानों में आश्रय ले लिया |
इनमे से सम्पन्न तवायफे भी थी जिन्होंने सन 1857 के गदर की भूमिका निभाने वाले क्रान्तिकारियो को आर्थिक सहयोग भी दिया था | उनके ऐसे कृत्य की भनक लगते ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रशासनिक अधिकारियो ने इनको प्रताड़ित करना आरम्भ कर दिया | ब्रिटिश प्रशासन द्वारा इनकी सम्पत्ति हडप ली गयी और इनके शरीर को अपने सैनको के हाथो उनकी भौतिक तृप्ति के लिए सौप दिया | ये बेचारी तवायफे सैकड़ो की संख्या में लखनऊ के सदर क्षेत्र में बसे सैनको के समूह में उनके भोग विलास के लिए खुली छोड़ दी गयी | इस खुले भोग विलास की परिणति इन तवायफो में गर्मी व सुजाक जैसे रोगों के फ़ैल जाने से ब्रिटिश सिंक मरने लगे | परिणाम अपने नृत्य एवं गयां कला के माध्यम से समाज में हंक बनाने वाली ये तवायफे सामान्य वैश्या होने को बाध्य हो गयी |
कालांतर में सन 1860 में जब शहर की श्तिति कुछ सम्भली तो तवायफो के अड्डे पुन: आबाद होने लगे | लेकिन इनका स्वरूप बदल चूका था स्वरूप बदलने के वावजूद लखनऊ की नजाकत नफासत ववन शराफत की छवि कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यो का त्यों बनी रही | पहले जो संगीत की महफिले नवाबो के दरबारों की शोभा बढ़ाती अब वे अमीरों , राजाओ महाराजाओं के दरबारों की शोभा बढ़ाने लगी | परिवर्तन की इस प्रक्रिया में जो तवायफे लखनऊ छोड़कर अन्यत्र कही चली गयी थी उनमे से अनेक लखनऊ वापस आ गयी |
गदर के समय सन्नाटे में डूबी गलियों की रौनक वापस अ गयी |
कालान्तर , वैश्याओ और तवायफो के स्थापित वर्ग से परे एक भिन्न नये वर्ग का उदभव हुआ | इस वर्ग की स्त्रियों की गणना न तो तवायफो के वर्ग से की जा सकती थी और न ही वैश्याओ के वर्ग से | इस वर्ग में सम्मलित स्त्रियों को जनान -- खानगी अथवा खानगिया कहकर पुकारा गया | इस जनान खानी परम्परा का चलन लखनऊ से ही प्रारम्भ हुआ और इसके पूर्व इस वर्ग की स्त्रिया अन्यत्र कही उपलब्ध न थी | लखनऊ में इनके प्रादुर्भाव की अपनी ही एक व्यथा - कथा है | सन 1857 की गदर के उपरान्त इन तवायफो एवं वैश्याओ के उजाड़कर पुनर्स्थापन के क्रम में इनके अपने ही कई वर्ग बन गये | इन वर्गो का नाम जनान - खानगी पडा |लखनऊ में हुई सन १८५७ की गदर के कारण शहर में कुछ ऐसी तबाही की स्थिति बनी की सैकड़ो और हजारो की संख्या में शहर के सामान्य एवं विशिष्ठ शरनी के लोग तबाह हो गये और इनमे से अनेकानेक शालीन एवं शिष्ट लोग रोजी - रोटी के लिए दुसरो के आश्रित बन्ने को बाध्य हो गये |

Sunday, February 18, 2018

तवायफे -- गदर से पहले -- भाग चार 18-2-18

तवायफे -- गदर से पहले -- भाग चार


प्राचीनकाल के भारत में भी कभी लगभग इसी प्रकार के व्यवसाय से जुडी नारिया हुआ करती थी जिन्हें प्राचीन भाषा में गणिका, पतुरिया नटीनिया , वैश्या आदि कहकर सम्बोधित किया जता था | कालान्तर , देश में उर्दू भाषा के प्रादुर्भाव के साथ गजलो की प्रस्तुती का चलन प्रारम्भ हुआ जिसकी प्रस्तुतकर्ता गणिकाओ को तवायफ कहकर सम्बोधित किया जाने लगा और शारीरिक सम्बन्धो को स्थापित करके जीविकोपार्जन करने वाली वैश्याओ को रंडी शब्द से |
पुरातन समय में लखनऊ एक धार्मिक नगरी हुआ करती थी , जहां चौक क्षेत्र के निकट प्रवाहित गोमती के तट पर यज्ञादि अनुष्ठान सम्पन्न हुआ करते थे | ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में लूटपाट मचाने के उपरान्त जब टर्कीस्तान का महमूद गजनवी सन 1026 - 27 में सिंध के जाटो से युद्ध करता हुआ अपने देश वापस चला गया तो उसकी सेना में कार्यरत परशिया के शेखो और अफगानिस्तान के पठानों का एक समूह लखनऊ आकर बस गया | तेरहवी शताब्दी में बिजनौर से लखनऊ आकर बसे शेखो - पठानों के बर्चस्व के उपरान्त यहाँ कुछ समय के लिए हिन्दुओ के धार्मिक अनुष्ठान ढीले पड़ गये और शासक वर्ग की छत्रछाया में दरगाहो में कव्वालियो की संस्कृति पनपने लगी , जिसमे चौदहवी सदी के अन्त में लखनऊ आकर बसे फकीर हाजी हरमैन मृत्यु 1436 तथा शाह मीना मृत्यु 1479 के नाम उल्लेखनीय है | कालांतर , इन्ही शेखो और पठानों के शासनकाल में ही पंद्रहवी सदी में जयपुर राज्य के राजकीय सम्मान से विभूषित पंडित विष्णु शर्मा नामक एक विद्वान् ने लखनऊ में पदार्पण किया और चौक क्षेत्र में प्रवाहित गोमती नदी के किनारे यज्ञशाला स्थापित करते हुए वहाँ सोमयज्ञ सम्पन्न कराया और उसके उपरान्त उपरोक्त यज्ञशाला अपने पुत्रो को सौपकर स्वंय गोला गोकरन नाथ चले गये | लखनऊ में रुके पंडित विष्णु शर्मा के पुत्र प्रीतिकर शर्मा एवं ओनके पुत्र बुद्धि शर्मा ने भी एक - एक सोमयज्ञ सम्पन्न करवाया | इन यज्ञो में शास्त्र के नियमो के अनुरूप परम्परागत गायन - वादन एवं नृत्यग्नाओ के नृत्य के कार्यक्रम सम्पन्न हुए , किन्तु इन नृत्यों में धार्मिक तत्व निहित थे |
उल्लेखनीय यह है कि यद्दपि उन दिनों शेख और पठान अपने कठोर शासन के लिए प्रसिद्द थे पर उन लोगो ने इन अनुष्ठानो में कही कोई व्यवधान नही डाला | सन्दर्भवश सोमयज्ञ को वाजपेयी यज्ञ भी कहा जाता है | लखनऊ के वाजपेयी कहे जाने वाले लोग इन्ही पंडित विष्णु शर्मा के वंशज हैं |
उस समय तक लखनऊ में तवायफो एवं वैश्याओ की उपस्थिति का कोई संकेत नही मिलता |
लखनऊ तथा उसके आसपास के क्षेत्रो में तवायफो के आगमन का क्रम तब प्रारम्भ हुआ , जब दिल्ली के बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले के उपर सन 1738 में नादिरशाह का बर्बर आक्रमण हुआ | उनकी निर्दयता से आक्रान्ता साहित्यकार कलाकार , गायन , वादन , संगीतज्ञ ,नर्तकिया आदि सभी दिल्ली छोड़ अन्यत्र भागने लगे | उस समय फैजाबाद में मोहम्मद शाह'रंगीले ' के सैन्य अधिकारी सेनापति मोहम्मद अमीन उर्फ़ बुरहान - उल - मुल्क 1724 - 1739 लखनऊ को शेखो एवं पठानों के चंगुल से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से नियुक्त थे | अत: उस समय वह एवं उनकी शासन व्यवस्था उसी कार्य को सम्पन्न करवाने में व्यस्त थी , जिसके कारण कलाकारों के समूह के साथ दिल्ली से पलायन करने वाली तवायफे अपने समूह के साथ लखनऊ , फैजाबाद , जौनपुर व अन्य क्षेत्रो में इधर - उधर डेरा डालकर अपने गायन , वादन व नृत्य की कला के माध्यम से जीविकोपार्जन करती रही |
सन 1748 में दिल्ली के बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले की मृत्यु हो गयी परिणाम स्वरूप सन 1738 में नादिरशाह के क्रूर आक्रमण काल के समय जो तवायफे और संगीतज्ञ अन्यत्र कही पलायन न करके दिल्ली में रुक गये थे उनके साथ बहुत बुरा हुआ | पलायन की इस प्रक्रिया में कुछ तवायफे अपने समूह के साथ प्रश्रय हेतु फैजाबाद के तत्कालीन नवाब सफदर गंज 1739 -1754 के दरबार जा पहुची | किन्तु वहाँ उनको सहारा न मिल सका | उसके उपरान्त जब सत्ता की बागडोर शुजाउद्दौला 1754 - 1775 के हाथो आई तो उन्होंने इन सबको प्रश्रय दे दिया | कमश: शुजाउद्दौला का इन तवायफो के प्रति आकर्षण इतना बढ़ गया कि जब भी वो कही बाहर की यात्रा करते तो तवायफो और उनके संगीतज्ञो को भी अपने साथ ले जाते | यही नही वरन उनके शासनकाल के समय शहर की पूरी रात तवायफो के घुघरूओ की रुनझुन से गुजायमान रहती थी |
सत्ता की बागडोर आसफुद्दौला 1775 - 1798 के हाथो आई और उन्होंने राजपाट के कार्य को फैजाबाद से लखनऊ स्थानातरित करते हुए स्वंय भी लखनऊ में रहने का निर्णय लिया | उनके लखनऊ पहुचते ही न की मात्र फैजाबाद की तवायफे अपनी संगीत मण्डली के साथ लखनऊ पहुच गयी | इस क्रम में पंजाब की अनेक तवायफे भी लखनऊ आकर बस गयी | लखनऊ आने वाली इन सभी तवायफो को उनके मूल स्थान से अधिक सरक्षण एवं सम्मान लखनऊ में मिला | कहा जाता है कि आसफुद्दौला , सन 1795 में अपने पुत्र वजीर अली की बारात में तवायफो के एक बड़े समूह को जिनकी संख्या सैकड़ो में आंकी जाती है , अपने साथ ले गये थे |
क्रमश: तवायफो की घुसपैठ नवाबो के बीच बढती ही चली गयी | महफ़िलो में तवायफो की उपस्थिति उनकी प्रतिष्ठा व गरिमा का प्रतीक बन गया |
नवाब सआदत अली खा 1798 - 1814 के बारे में प्रसिद्ध है कि अपने कार्यालय के कमरे में जहां बैठकर वह अपने राजकीय कार्यो को निपटाते थे , उसके एक ओर तवायफो की चौकी सजी रहती थी | जब नवाब अपने कार्य से थक जाते थे तो तवायफे अपने नृत्य के हाव - भाव प्रदर्शन के माध्यम से उनके दिलो दिमाग को ताजा करती थी | गाजीउद्दीन हैदर 1814 - 1827 के विषय में कहा जाता है ई इन्ही के समय से मोहर्रम के दो महीने व आठ दिनों के बीच मातम के रूप में सोजख्वानी अंदाज में मर्सिया पढ़े जाने की परम्परा की शुरुआत हुई |
नसीरुद्दीन हैदर 1827- 1837 के विषय में तवायफो से सम्बन्धित केवल एक घटना का विवरण मिलता है जिसमे उन्होंने एक पुस्तक में दिए गये राग - रागनियो के अनुरूप 500 तवायफो को सुसज्जित करवाकर प्रत्येक रागनी के लिए तीस दिनों तक अलग अलग नृत्य कार्यक्रम आयोजित करवाया | बाद में मुम्मद अली शाह 1837 - 1842 तथा नवाब अमजद अली 1842 - 1847 के शासनकाल में इन तवायफो को शासन की तरफ से कोई प्रोत्साहन न मिलने के कारन तवायफो का एक बड़ा वर्ग लखनऊ से अन्यत्र कही और पलायन कर गया | जब वाजिद अली शाह 1847 - 1856 ने सत्ता की बागडोर सम्भाली तो तवायफो के साथ सभी संगीतकारों के पाव बारह हो गये तथापि उल्लेखनीय है ई इन तवायफो से सम्बन्ध बनाये रखने की प्रक्रिया में नवाबो ने उसन सबसे एक गरिमामय दुरी अवश्य बनाये रखी |
लखनऊ में नवाबो की सन1775 से1856 के बीच की यात्रा में लखनऊ के चौक क्षेत्र में इन तवायफो एवं वैश्याओ के समूहों के अनेक ठिकाने स्थापित हो गए | चौक , जो कभी धार्मिक क्रित्र्यो का गढ़ माना जाता था उसका एक महत्वपूर्ण क्षेत्र ऐय्याशी के अड्डे के रूप में परिवर्तित हो गया | तथापि नवाबो के समय तवायफो एवं वैश्याओ के उन अड्डो में एक अनुशासन स्थापित रहा |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार -- आभार हमारा लखनऊ पुस्तक से - लेखक -रामकिशोर बाजपेयी |


प्राचीनकाल के भारत में भी कभी लगभग इसी प्रकार के व्यवसाय से जुडी नारिया हुआ करती थी जिन्हें प्राचीन भाषा में गणिका, पतुरिया नटीनिया , वैश्या आदि कहकर सम्बोधित किया जता था | कालान्तर , देश में उर्दू भाषा के प्रादुर्भाव के साथ गजलो की प्रस्तुती का चलन प्रारम्भ हुआ जिसकी प्रस्तुतकर्ता गणिकाओ को तवायफ कहकर सम्बोधित किया जाने लगा और शारीरिक सम्बन्धो को स्थापित करके जीविकोपार्जन करने वाली वैश्याओ को रंडी शब्द से |
पुरातन समय में लखनऊ एक धार्मिक नगरी हुआ करती थी , जहां चौक क्षेत्र के निकट प्रवाहित गोमती के तट पर यज्ञादि अनुष्ठान सम्पन्न हुआ करते थे | ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में लूटपाट मचाने के उपरान्त जब टर्कीस्तान का महमूद गजनवी सन 1026 - 27 में सिंध के जाटो से युद्ध करता हुआ अपने देश वापस चला गया तो उसकी सेना में कार्यरत परशिया के शेखो और अफगानिस्तान के पठानों का एक समूह लखनऊ आकर बस गया | तेरहवी शताब्दी में बिजनौर से लखनऊ आकर बसे शेखो - पठानों के बर्चस्व के उपरान्त यहाँ कुछ समय के लिए हिन्दुओ के धार्मिक अनुष्ठान ढीले पड़ गये और शासक वर्ग की छत्रछाया में दरगाहो में कव्वालियो की संस्कृति पनपने लगी , जिसमे चौदहवी सदी के अन्त में लखनऊ आकर बसे फकीर हाजी हरमैन मृत्यु 1436 तथा शाह मीना मृत्यु 1479 के नाम उल्लेखनीय है | कालांतर , इन्ही शेखो और पठानों के शासनकाल में ही पंद्रहवी सदी में जयपुर राज्य के राजकीय सम्मान से विभूषित पंडित विष्णु शर्मा नामक एक विद्वान् ने लखनऊ में पदार्पण किया और चौक क्षेत्र में प्रवाहित गोमती नदी के किनारे यज्ञशाला स्थापित करते हुए वहाँ सोमयज्ञ सम्पन्न कराया और उसके उपरान्त उपरोक्त यज्ञशाला अपने पुत्रो को सौपकर स्वंय गोला गोकरन नाथ चले गये | लखनऊ में रुके पंडित विष्णु शर्मा के पुत्र प्रीतिकर शर्मा एवं ओनके पुत्र बुद्धि शर्मा ने भी एक - एक सोमयज्ञ सम्पन्न करवाया | इन यज्ञो में शास्त्र के नियमो के अनुरूप परम्परागत गायन - वादन एवं नृत्यग्नाओ के नृत्य के कार्यक्रम सम्पन्न हुए , किन्तु इन नृत्यों में धार्मिक तत्व निहित थे |
उल्लेखनीय यह है कि यद्दपि उन दिनों शेख और पठान अपने कठोर शासन के लिए प्रसिद्द थे पर उन लोगो ने इन अनुष्ठानो में कही कोई व्यवधान नही डाला | सन्दर्भवश सोमयज्ञ को वाजपेयी यज्ञ भी कहा जाता है | लखनऊ के वाजपेयी कहे जाने वाले लोग इन्ही पंडित विष्णु शर्मा के वंशज हैं |
उस समय तक लखनऊ में तवायफो एवं वैश्याओ की उपस्थिति का कोई संकेत नही मिलता |
लखनऊ तथा उसके आसपास के क्षेत्रो में तवायफो के आगमन का क्रम तब प्रारम्भ हुआ , जब दिल्ली के बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले के उपर सन 1738 में नादिरशाह का बर्बर आक्रमण हुआ | उनकी निर्दयता से आक्रान्ता साहित्यकार कलाकार , गायन , वादन , संगीतज्ञ ,नर्तकिया आदि सभी दिल्ली छोड़ अन्यत्र भागने लगे | उस समय फैजाबाद में मोहम्मद शाह'रंगीले ' के सैन्य अधिकारी सेनापति मोहम्मद अमीन उर्फ़ बुरहान - उल - मुल्क 1724 - 1739 लखनऊ को शेखो एवं पठानों के चंगुल से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से नियुक्त थे | अत: उस समय वह एवं उनकी शासन व्यवस्था उसी कार्य को सम्पन्न करवाने में व्यस्त थी , जिसके कारण कलाकारों के समूह के साथ दिल्ली से पलायन करने वाली तवायफे अपने समूह के साथ लखनऊ , फैजाबाद , जौनपुर व अन्य क्षेत्रो में इधर - उधर डेरा डालकर अपने गायन , वादन व नृत्य की कला के माध्यम से जीविकोपार्जन करती रही |
सन 1748 में दिल्ली के बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले की मृत्यु हो गयी परिणाम स्वरूप सन 1738 में नादिरशाह के क्रूर आक्रमण काल के समय जो तवायफे और संगीतज्ञ अन्यत्र कही पलायन न करके दिल्ली में रुक गये थे उनके साथ बहुत बुरा हुआ | पलायन की इस प्रक्रिया में कुछ तवायफे अपने समूह के साथ प्रश्रय हेतु फैजाबाद के तत्कालीन नवाब सफदर गंज 1739 -1754 के दरबार जा पहुची | किन्तु वहाँ उनको सहारा न मिल सका | उसके उपरान्त जब सत्ता की बागडोर शुजाउद्दौला 1754 - 1775 के हाथो आई तो उन्होंने इन सबको प्रश्रय दे दिया | कमश: शुजाउद्दौला का इन तवायफो के प्रति आकर्षण इतना बढ़ गया कि जब भी वो कही बाहर की यात्रा करते तो तवायफो और उनके संगीतज्ञो को भी अपने साथ ले जाते | यही नही वरन उनके शासनकाल के समय शहर की पूरी रात तवायफो के घुघरूओ की रुनझुन से गुजायमान रहती थी |
सत्ता की बागडोर आसफुद्दौला 1775 - 1798 के हाथो आई और उन्होंने राजपाट के कार्य को फैजाबाद से लखनऊ स्थानातरित करते हुए स्वंय भी लखनऊ में रहने का निर्णय लिया | उनके लखनऊ पहुचते ही न की मात्र फैजाबाद की तवायफे अपनी संगीत मण्डली के साथ लखनऊ पहुच गयी | इस क्रम में पंजाब की अनेक तवायफे भी लखनऊ आकर बस गयी | लखनऊ आने वाली इन सभी तवायफो को उनके मूल स्थान से अधिक सरक्षण एवं सम्मान लखनऊ में मिला | कहा जाता है कि आसफुद्दौला , सन 1795 में अपने पुत्र वजीर अली की बारात में तवायफो के एक बड़े समूह को जिनकी संख्या सैकड़ो में आंकी जाती है , अपने साथ ले गये थे |
क्रमश: तवायफो की घुसपैठ नवाबो के बीच बढती ही चली गयी | महफ़िलो में तवायफो की उपस्थिति उनकी प्रतिष्ठा व गरिमा का प्रतीक बन गया |
नवाब सआदत अली खा 1798 - 1814 के बारे में प्रसिद्ध है कि अपने कार्यालय के कमरे में जहां बैठकर वह अपने राजकीय कार्यो को निपटाते थे , उसके एक ओर तवायफो की चौकी सजी रहती थी | जब नवाब अपने कार्य से थक जाते थे तो तवायफे अपने नृत्य के हाव - भाव प्रदर्शन के माध्यम से उनके दिलो दिमाग को ताजा करती थी | गाजीउद्दीन हैदर 1814 - 1827 के विषय में कहा जाता है ई इन्ही के समय से मोहर्रम के दो महीने व आठ दिनों के बीच मातम के रूप में सोजख्वानी अंदाज में मर्सिया पढ़े जाने की परम्परा की शुरुआत हुई |
नसीरुद्दीन हैदर 1827- 1837 के विषय में तवायफो से सम्बन्धित केवल एक घटना का विवरण मिलता है जिसमे उन्होंने एक पुस्तक में दिए गये राग - रागनियो के अनुरूप 500 तवायफो को सुसज्जित करवाकर प्रत्येक रागनी के लिए तीस दिनों तक अलग अलग नृत्य कार्यक्रम आयोजित करवाया | बाद में मुम्मद अली शाह 1837 - 1842 तथा नवाब अमजद अली 1842 - 1847 के शासनकाल में इन तवायफो को शासन की तरफ से कोई प्रोत्साहन न मिलने के कारन तवायफो का एक बड़ा वर्ग लखनऊ से अन्यत्र कही और पलायन कर गया | जब वाजिद अली शाह 1847 - 1856 ने सत्ता की बागडोर सम्भाली तो तवायफो के साथ सभी संगीतकारों के पाव बारह हो गये तथापि उल्लेखनीय है ई इन तवायफो से सम्बन्ध बनाये रखने की प्रक्रिया में नवाबो ने उसन सबसे एक गरिमामय दुरी अवश्य बनाये रखी |
लखनऊ में नवाबो की सन1775 से1856 के बीच की यात्रा में लखनऊ के चौक क्षेत्र में इन तवायफो एवं वैश्याओ के समूहों के अनेक ठिकाने स्थापित हो गए | चौक , जो कभी धार्मिक क्रित्र्यो का गढ़ माना जाता था उसका एक महत्वपूर्ण क्षेत्र ऐय्याशी के अड्डे के रूप में परिवर्तित हो गया | तथापि नवाबो के समय तवायफो एवं वैश्याओ के उन अड्डो में एक अनुशासन स्थापित रहा |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार -- आभार हमारा लखनऊ पुस्तक से - लेखक -रामकिशोर बाजपेयी |