Saturday, January 13, 2018

विक्रमशिला -- महाविहार 13-1-18

विक्रमशिला -- महाविहार


भिक्षुओ के निवास हेतु निर्मित महाविहार एक विशाल वर्गाकार स्र्चना है जिसकी प्रत्येक भुजा लगभग 300 मीटर है | इसके केंद्र में क्रास के समान आधार वाला ईट - निर्मित एक स्तूप अवस्थित है | उत्तरी भुजा के मध्य में भव्य प्रवेश द्वार है जिसका मंडप ऊँचे एकाश्मक स्तम्भों पर आच्छादित था | द्वार मंडप के द्प्नो पाश्व्र्र में चार - चार कक्ष बने है | मुख्य द्वार से लगभग 70 मीटर पूर्व की और एक गुप्त द्वार दक्षिणी भुजा पर एक सकरा निकास मार्ग होने के भी स्पष्ट प्रमाण प्राप्त हुए है |





कुल 208 कक्षों वाले महाविहार की प्रत्येक भुजा पर 52 कक्ष पक्तिब्द्द है जो एक बरामदे के साथ जुड़े है | बरामदो के मध्य में प्रागण में उतरने के लिए सीढ़िया बनी हैं | प्राय: सभी कक्ष वर्गाकार है जिनकी दीवारों की भीतरी माप लगभग 4.0. मीटर है | बाहरी दीवार चारो कोनो पर दुर्ग का आभास देती गोलाकार बुर्जी से युक्त है जिनके बीच नियमित अंतराल पर अपेक्षाकृत छोटे आकार वाली गोलाकार तथा आयातकार बुर्जिया क्रमागत रूप से बनी है |इस प्रकार प्रत्येक भुजा पर चार गोलाकार व चार आयतकार कुल आठ बजरिया है | बुजरी वाले सभी प्रक्षेपित कक्ष तीन शायिकाओ व मेहराबदार खिडकियों से युक्त है | महाविहार की उत्तरी भुजा के अतिरिक्त शेष तीनो भुजाओं के मध्य में स्थित आयातकार बुर्जी अपेक्षाकृत बड़ी है जिसमे तीन - तीन कक्ष बने हैं | विहार के कुछ कमरों के नीचे ईटो द्वारा निर्मित मेहराब वाले भूमिगत कक्ष भी है जो सम्भवत" भिक्षुओ के एकांत चिंतन के लिए बनाये गये थे | जल निकासी हेतु मुख्य नाला परिसर के पूर्वोत्तर कोण पर स्थित है |
महाविहार के दक्षिण -पश्चिम कोने से लगभग 32 मीटर दक्षिण संकरे सम्पर्क मार्ग के द्वारा जोड़ी हुई एक आयातकार स्र्चना है जिसकी पहचान ग्रन्थागार के रूप में की गयी है | इसकी पाश्वर भित्ति में झरोखो की पंक्ति तथा सम्बद्द जलाशय के आधार पर ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह भवन को वातानुकूलित रखने की प्रणाली थी जो ग्रंथो व पांडुलिपियों को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से विकसित की गयी थी |

विशाल स्तूप ----




महाविहार के केंद्र में स्थित विक्रमशिला स्तूप पूजा के निर्मित प्रतीत होता है | यह मिटटी के गारे व ईटो की सहायता से बनी ठोस सरचना है | क्रास के समान आधार विन्यास वाले इस द्दिमेधि स्तूप की वर्तमान की ऊँचाई लगभग 15 मीटर है | भूमि से प्रथम मेधी तथा प्रथम मेढ़ी से द्दितीय मेधी दोनों की ऊँचाई लगभग 2.25 मीटर है | दोनों पर प्रदक्षिणा पथ है जिसकी चौड़ाई क्रमश: 4.50 मीटर 3.00 मीटर है |
मुख्य स्तूप ऊपरी मेधी पर निर्मित है जहां पहुचने के लिए उत्तर की और सीढ़िया बनी है | चारो प्रमुख दिशाओं में स्तूप से जुड़े प्रक्षेपित कक्ष अंतराल तथा उनके सन्मुख प्रदक्षिणा पथ द्वारा पृथक्कृत स्तम्भ युक्त मंडप बने है | इन कक्षों में बुद्द की विशालकाय गच प्रतिमाये स्थापित थी जिनमे से तीन के अवशेष तो यथा स्थान प्राप्त हुए है किन्तु उत्तर दिशा की एक परवर्ती प्रस्तर प्रतिमा प्राप्त हुई है | सभी गच प्रतिमाये दुर्भाग्य वश कटिभाग के ऊपर नष्ट हो चुकी है | प्रतिमाये इष्टिका निर्मित पीठिका पर आसीन है जिन पर लाल व काले रंग की चित्रकारी के भी चिन्ह मिले है | मुख्य कक्षों व अंतराल की दीवारों तथा फर्श को चुना - प्लास्टर से लेपित भी किया गया था | दोनों मेधियो की भित्ति पर मृण्मय फलको तथा कलात्मक सज्जा - पट्टीकाओ का सुरुचिपूर्ण समायोजन इस क्षेत्र में पाल्युगिन ) 8वी--12वी शती ई ) मृण्मय कला की पराकाष्ठा का जिवंत उदाहरण है | इन मृण्मय फलको पर बुद्द , अवलोकितेश्वर , मंजुश्री , मैत्रेय , जाम्भाल , मारीची एवं तारा इत्यादि बौद्धों प्रतिमाओं के साथ - साथ बौद्ध धर्म से जुड़े कुछ दृश्यों को भी दर्शाया गया है | इन पर कुछ सामाजिक एवं आकेत दृश्य तथा विष्णु , पार्वती अर्द्धनारीश्वर , हनुमान इत्यादि हिन्दू देवी देवताओं का भी चित्रण किया गया है | इनके अतिरिक्त कुछ मानव आकृतिया यथा साधू , योगी , उपदेशक , ढोल वादक नर्तक योद्धा सपेरा इत्यादि पशु आकृति यथा वानर हाथी अश्व हिरन सूअर चिता सिंह भेदिया इत्यादि तथा कुछ पक्षियों का भी चित्रं भी इन मृण्मय फलको पर देखने को मिलता है |
स्तूप की बनावट तथा मृण्मय फलको की विषयवस्तु की दृष्टि से यह सोमपुर महाविहार , पहाडपुर ( बांग्लादेश ) के साथ अत्यधिक समानता रखता है | ज्ञातव्य है कि दोनों के संस्थापक पाल नरेश धर्मपाल ही थे |




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