Tuesday, February 3, 2015

जिज्ञासा -------------- 4-2-15

जिज्ञासा --------------



सूफी संत बुल्लेशाह के पास एक नौजवान आया और बोला , हुजुर , मैंने जीवन में अनेक काम किये . लेकिन कही भी सफलता नही मिली | मैं ऐसी जिन्दगी से बहुत ही निराश हो चुका हूँ  | मुझे जीवन में श्रेष्ठ बनने का कोई उपाए बताये | इस पर बुल्लेशाह ने कहा - जीवन में यू ही श्रेष्ठ नही बना जाता है  |  इसके लिए एकाग्रचित भाव से बड़ी साधना करनी पड़ती है . तभी कोई इंसान बुलन्दियो को छू सकता है |
यदि तुम अपने जीवन ने कुछ बड़ा हासिल करना चाहते हो तो इसके लिए बड़ा लक्ष्य बनाओ | अपने ह्रदय को महत्वाकाक्षा और उंचाइयो के स्वप्नों से भर लो | बगैर लक्ष्य और महत्वाकाक्षा के संयोग से तुम श्रेष्ठ व्यक्ति नही बन सकोगे , क्योकि उसके आभाव में तुम आंतरिक एकाग्रता से वंचित रहोगे | जो व्यक्ति अपनी आंतरिक शक्तियों को एकत्र करके जीवन - जगत के सर्वाधिक म्हत्ब्व्पूर्ण लक्ष्य की सतत आकाक्षा करता है . वही श्रेष्ठ व्यक्तित्व विनिर्मित कर पाटा है  |   नौजवान ने संत बुल्लेशाह से कहा -- मैं ऐसा करना तो चाहता हूँ , पर यह होगा कैसे  ? बुल्लेशाह ने उत्तर दिया -- जमीन में दबे हुए बीज को देखो | वह किस भाँती अपनी साड़ी शक्तियों को एकत्र कर भूमि को भेदकर उपर उठता है | सूर्य के दर्शन की प्रबल महत्वाकाक्षा उसे अंकुर बनाती है | इसी से प्रेरित होकर वव स्वंय की क्षुद्रता से बाहर आता है | विराट को पाने के लिए कुछ ऐसी ही महत्वाकाक्षा की जरुरत है | इसके बाद उन्होंने उस नौजवान को समझाते हुए कहा -- अपनी आंतरिक शक्तियों की एकता . मन की सम्पूर्णता एकाग्रता के द्वारा स्वंय की क्षुद्रताओ को तोड़ दो | जब ऐसा होगा , तब जीवन व जगत में जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है , उसे पाने की आकाक्षा स्वंय ही पूरी हो जाएगा | यह सुनने के बाद नौजवान को जीवन के प्रति नया नजरिया मिला और  वह संत बुल्लेशाह को प्रणाम कर वह से चला गया | यू देखा जाए तो महत्वाकाक्षा की सही समझ बहुत कम को हो पाती है | इसे समझने के लिए मन को निर्मल , चिंतन को केन्द्रित एवं विचारों को व्यापक बनाना होगा

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