Friday, December 5, 2014

महामानव होने की ओर यात्रा 6-12-14

महामानव होने की ओर यात्रा





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हमारे एक ओर अहं है , दूसरी ओर आत्मा | अह खडाकाश की तरह है - घर के अन्दर का आकाश है |  उससे जुदा हुआ महाकाश है ,वह आकाश असीम है , विश्वव्यापी है |
.......................................................................            .रवीन्द्रनाथ टैगोर
हमारी तीन जन्मभूमिया है और तीनो एक -दूसरे से मिली हुई है | पहली जन्मभूमि है पृथ्वी | मनुष्य का वासस्थान पृथ्वी पर सर्वत्र है |ठंडा हिमालय और गरम रेगिस्तान , दुर्गम उत्तुंग पर्वत - श्रेणी और बंगाल की तरह समतल भूमि -सभी जगह मानव का निवास है |
मनुष्य का वासस्थान वास्तव में एक ही है - अलग अलग देशो का नही , सारी मानव - जाति का |मनुष्य के लिए पृथ्वी का कोई अंश दुर्गम नही -पृथ्वी ने उसके सामने अपना हृदय मुक्त कर दिया है | मनुष्य का द्धितीय वासस्थान है -स्मृति जगत | अतीत से पूर्वजो का इतिहास लेकर वह काल का नीड़ तैयार करता है -यह नीड़ स्मृति की ही रचना है |स्मृति जगत में मानव -मात्र का मिलन होता है |विश्व मानव का वासस्थान एक ओर पृथ्वी है ,दूसरी ओर सारे मनुष्यों का स्म्रितिलोक | मनुष्य समस्त पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करता है और समस्त इतिहास में भी |
उसका तृतीय वासस्थान है -आत्मलोक |इसे हम मानवचित्त का महादेश कह सकते है | यही चित्तलोक मनुष्यों के आंतरिक योग का क्षेत्र है |किसी का चित्त संकीर्ण दायरे में आबद्ध है , किसी के चित्त में विकृति है -लेकिन एक ऐसा व्यापक चित्त भी है ,जो विश्वजगत है , व्यक्तिगत नही |उसका परिचय हमें अकस्मात ही मिल जाता है - किसी दिन अचानक वह हमें आव्हान देता है |साधारण व्यक्ति में भी देखा जाता है कि झा वह स्वार्थ भूल जाता है , प्रेम करता है वहा उसके मन का एक ऐसा पक्ष है , जो 'सर्वमान्य' के चित्त की ओर प्रवृत है |
मनुष्य विशेष प्रयोजनों के कारण घर की सीमाओं में बद्ध है ,लेकिन महाकाश के साथ उसका सच्चा योग है |व्यक्तिगत मन अपने विशेष प्रयोजनों की सीमा में संकीर्ण होता है , लेकिन उसका वास्तविक विस्तार सर्वमान्य -चित्त में है | वहा की अभिव्यक्ति आश्चर्यजनक है |एक आदमी के पानी में गिरते ही दुसरा उसे बचाने के लिए कूद पड़ता है |दूसरे की प्राण - रक्षा के लिए मनुष्य अपने प्राण संकट में डाल सकता है |हम देखते है किमनुष्य अपनी रक्षा को ही सबसे बड़ी चीज नही गिनता |इसका कारण यही है कि प्रत्येक मनुष्य कि सत्ता दुसरो कि सत्ता से जुडी हुई है | मेरा जन्म ऐसे परिवार में हुआ , जिसका धर्म -साधन एक विशेष प्रकार का था | उपनिषद , मेरे पिताश्री कि अभिज्ञता और अन्य साधको कि साधना -इन सबसे मिलकर हमारी पारिवारिक साधना का निर्माण हुआ | मैं स्कूल से भागने वाला बालक था | जो भी जगह घिरी हुई होती है ,वह मेरा मन नही लगता |जो अभ्यास बाहर से लादा जाता है , उसे मैं ग्रहण नही कर पाता ,लेकिन पिताश्री ने इस विषय में कभी भर्त्सना नही की |उन्होंने स्वंय स्वाधीनता के साथ पूर्वजो के संस्कारों का त्याग किया था |गंभीर से गंभीर जीवन तत्व के सम्बन्ध में मैं आज़ादी से सोचता था |यह बात माननी होगी कि मेरी यह स्वतंत्रता कभी -कभी उन्हें दुःख पहुचाती थी -फिर भी उन्होंने कभी कुछ कहा नही |

एक दिन मैं सवेरे उठकर चौरंगी के घर के बरामदे में खड़ा था | मैंने देखा कि पेड़ के पीछे से सूर्य उदित हो रहा है | जैसे ही पेड़ से सूर्य का आविर्भाव हुआ ,मेरे मन का पर्दा खुल गया | मुझे लगा कि मनुष्य आजन्म एक आवरण लिए रहता है |उसकी स्वतंत्रता उसी तक सीमित है |इस स्वतंत्रता का लोप होने से सांसारिक प्रयोजनों कि पूर्ति में असुविधा होती है , लेकिन उस दिन सूर्योदय होते ही मेरा आवरण दूर हुआ | मैंने सोचा , अब सत्य को मुक्त दृष्टि से देख पाया हूँ |दो लोग जरा दूर एक-दूसरे के कंधो पर हाथ धरे , हँसते -हँसते चले जा रहे थे |उनको देखकर मैंने एक अनिर्वचनीय सौन्दर्य का अनुभव किया |
मैंने कहा है कि हमारे एक ओर अह है , दूसरी ओर आत्मा |अह खडाकाश कि तरह है - घर के अन्दर का आकाश है |उससे जुदा हुआ महाकाश है , एह आकाश असीम है , विश्वव्यापी है |'मानवत्व ' से जिस विराट पुरुष की ओर संकेत होता है वह हमारे खडाकाश में भी है |हममे ही चेतना के दो पक्ष है -एक हमसे बद्ध है , दुसरा सर्वत्र व्याप्त है |ये दोनों सलग्न है ,और इनको मिलाकर ही हमारी परिपूर्ण सत्ता बनती है ,इसीलिए मैंने कहा है कि जब हम अह को एकांगी भाव से पकडकर रखते है तब हम मानव -धर्म से च्युत हो जाते है |तब हमारा उस महामानव से - विराट पुरुष से - विच्छेद हो जाता है ,जो हम्मे विद्यमान है |जब अह उदात्त होकर आत्मा की ओर उन्मुख होता है तो उसे नया जीवन मिलता है |कभी उसी अह के क्रीडा -भवन में मैं गिरफ्तार था |अपने प्राण को ही मैंने पकड रखा था , वृहत सत्य रूप नही देखा था | उस दिन अन्धकार से मैं आलोक में आया - बाहर के , असीम के आलोक में | कारागृह का द्वार खोलकर बाहर निकलने के लिए , जीवन की सारी विचित्र लीलाओं के साथ सम्मलित होकर प्रवाहित होने के लिए अन्तकरण व्याकुल था | उस परवाह की गति थी महान ,विराट समुद्र की ओर | उसी को अब मैंने विराट पुरुष कहा है |उसी महामानव में जाकर नदी मिलेगी , लेकिन सबके बिच से गुजरते हुए | यह पुकार मैंने सुनि | सूर्य -प्रकाश में जागकर मन व्याकुल हो उठा |यह आव्हान कहा से आया ?यह महासमुद्र की ओर आकर्षित करता है , मानव-मात्र के बितर होकर ,संसार के भीतर होकर |भोग -त्याग किसी को भी यह अस्वीकार नही करता -सबका स्पर्श -बोद्ध करके आखिर उस स्थान पर पहुचता है जिसके प्रति मैंने कहा -
आज न जाने क्या हुआ , प्राण जाग उठा
दूर से मानो मैंने महासागर का गीत सुना |
उसी सागर की ओर हृदय दौड़ता है |
उसी तट पर जाकर जीवन शेष होना चाहता है |
मनुष्य -मनुष्य में स्नेह , प्रेम और भक्ति के सम्बन्ध तो है ही ,लेकिन उन्हें जब हम विशेष रूप से देखते है , विशाल पृष्ठभूमि में देखते ,तौंमे ऐक्य और तात्पर्य का बोद्ध होता है |मैंने बिलकुल ही मनमाना गीत गाया हो , ऐसी बात नही है |यह गीत घड़ी दो घड़ी का नही है ,यह अंतहीन है |इसमें एक धारावाहिकता है , प्रत्येक मनुष्य के हृदय में इसकी अनुभूति है |
मेरे गान में मनुष्यमात्र का योगदान है |
.............................................................सुनील दत्ता स्वतंर पत्रकार . समीक्षक

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (07-12-2014) को "6 दिसंबर का महत्व..भूल जाना अच्छा है" (चर्चा-1820) पर भी होगी।
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    सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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